संथाल जनजाति संक्षिप्त परिचय।
झारखंड की संथाल जनजाति मुख्यतः संथाल परगना क्षेत्र ( जामताड़ा,देवघर,पाकुड़, साहेबगंज,गोड्डा और दुमका) में केन्द्रित है। जहां इसकी आबादी लगभग 12 लाख से अधिक है। किन्तु छोटा नागपुर क्षेत्र में भी इसकी आबादी 5 लाख से कम नहीं है। यद्यपि यह लोग संताली भाषा बोलते हैं, जिसका संबंध आस्ट्रो एशियाई भाषा से है तथापि इनकी बोली छोटा नागपुर के दूसरे आदिवासियों से मिलती जुलती है। इनका पहनावा अत्यंत सादा होता है। गरीब संथाल केवल एक टुकड़ा कपड़ा से अपना सिर ढक लेते है। अमीर घराने के लोग धोती और कुर्ता पहनते हैं। इनकी स्त्रियां साधारणतः मोटे कपड़े की साड़ियां पहनती है। इनका मुख्य वस्त्र पॉची प्रहंद है। प्रहंद से अपना शरीर का निचला भाग ढकती है और प्राची को शरीर के ऊपरी भाग में पहनती है।
संथालो में गांव को आतो कहा जाता है।
गांव के मुखिया को मांझी का जाता है।
गांव का धर्मस्थल जोहार थान कहलाता है।
गृह देवता को ओडाग बोंगा कहा जाता है।
संभालू का मुख्य भोजन दाका उरू अर्थात दाल भात है।
दालों में कुर्थी मुख्य था।
बासक्याक (जलपान), माजवान( दोपहर का भोजन) और कदोक( रात का भोजन) होता था।
संथाल युवतियां तथा महिलाएं साधारणतः कांसा, पीतल, तांबा तथा चांदी के आभूषण पहनती थी। हाथों में सांखा तथा सकोम, बाहों में खागा, गले में हंसूली तथा सकडीं, कानों में पानरा, नाक में मकड़ी, पांवों में बांक-बंकी तथा पांव की अंगुलियों में बटरियां प्रमुख आभूषण थे।
युवक हाथों में टीडोर, बाहों में खागा तथा कानों में कुंडल पहनते थे।
वंशी, ढोल,नगाड़ा तथा केंन्दरा प्रमुख वाद्य यंत्र थे।
पोन वधू मूल्य था।
पुत्र जन्म के पांचवे दिन तथा कन्या जन्म के तीसरे दिन छठियार मनाया जाता था।
प्रायः पहली संतान का दादा दादी तथा दूसरी का नाना नानी के नाम पर नामांकन किया जाता था।
विवाह से पूर्व चाचो छठियार मनाया जाता था, जिसमें बच्चे को अपनी जाति की प्राप्ति होती थी।
संथाल जनजाति अंतर्विवाही जनजाति थी। सम गोत्र में विवाह निषेध था।
तलाक होने पर वधू मुझे लौटा दिया जाता था।
विवाह के प्रकार---:
सदाई बापला-: इस प्रकार के विवाह प्रायः वर-वधू की पसंद के आधार पर ही सुनिश्चित होते थे।
गोलाइटी बापला-:इस प्रकार के विवाह में जिस परिवार में बेटी ब्याही जाती थी उसी परिवार से पतोह लाई जाती थी। इस प्रकार के विवाह में पोन नहीं लिया जाता था। वधू मूल्य से बचने के लिए दो परिवार के लड़के लड़कियों का बिना पोन दिए विवाह कर दिया जाता था।
टुनकी दिपिल बापला-: इस प्रकार का विवाह प्रायः गरीब परिवारों के बीच संपन्न होता था। कन्या को वर के घर लाकर सिंदूर दान कर विवाह संपन्न हो जाता था।
धरदी जावांय बापला-: इस प्रकार के विवाह में पुत्रहीन व्यक्ति कन्या के गांव जाकर उसे अपने यहां ले आता था। वधू के लिए पोन नहीं देना पड़ता था तथा विवाह के बाद दामाद को ससुराल में ही रहना पड़ता था।
अपगिर बापला-: लड़का लड़की में प्रेम हो जाने पर पंचायत दोनों के अभिभावकों को विवाह संपन्न कराने के लिए कहती थी। यदि वे शादी के लिए तैयार हो जाते थे तो गांव के मांझी एवं पंचायत के सदस्यों के सामने सिंदूर लगाकर शादी संपन्न हो जाती थी। इस अवसर पर लड़के के पिता को गांव वालों को भोज देना पड़ता था।
इतुत बापला -: जब लड़की के माता-पिता उसकी पसंद के लड़के के साथ विवाह की अनुमति नहीं देते थे तो लड़का मेले अथवा किसी अवसर पर लड़की के माथे पर सिंदूर लगा देता था। लड़की के माता-पिता इसकी जानकारी मिलने पर लड़के के गांव जाते थे तथा वधू मूल्य मिलने पर विवाह संपन्न हो जाता था।
निर्बलोक बापला-: इस प्रकार के विवाह में लड़की हठकर अपनी पसंद के लड़के के घर रहने लगती थी। लड़का अथवा उसके परिवार के सदस्य बल प्रयोग कर लड़की को घर से निकालने की चेष्टा करते थे। फिर भी यदि लड़की जमी रह जाती थी तो जोगमांझी को सूचित किया जाता था। वह उनका विवाह संपन्न करा देता था।
बहादुर बापला-: इस प्रकार के विवाह में लड़का लड़की जंगल में भाग जाते थे और एक दूसरे को माला पहनाते थे । घर लौट कर अपने को एक कमरे में बंद कर लेते थे। इसके बाद यह माना जाता था कि उनका विवाह संपन्न हो चुका है।
राजा राजी बापला-: इस प्रकार के विवाह में लड़का लड़की गांव के मांझी के पास जाते थे। मांझी उन्हें लड़की के घर ले जाता था तथा गांव के वयोवृद्ध लोगों के समक्ष वह औपचारिक रूप से लड़की की स्वीकृति प्राप्त कर लेता था। लड़का लड़की के माथे पर सिंदूर लगा देता था और इस प्रकार विवाह संपन्न हो जाता था।
सांगा बापला-: इस प्रकार के विवाह में विधवा या तलाकशुदा स्त्री का विवाह विदुर अथवा परित्यक्त व्यक्ति के साथ संपन्न होता था। वर वधु स्वयं ही अपना विवाह तय करते थे। कुछ वधू मूल्य भी दिया जाता था। किसी निश्चित तिथि को वधू को वर के घर लाकर शादी करा दी जाती थी।
कीरिंग जावांय बापला-:जब लड़की दूसरे पुरुष से गुप्त रूप से गर्भवती हो जाती थी तो इस लड़की से विवाह के इच्छुक व्यक्ति को कुछ धनराशि देख कर शादी कर दी जाती थी। वधू के माता-पिता द्वारा उसे वैधानिक जीवन प्रारंभ करने के लिए गाय, बैल तथा कुछ द्रव्य भी प्रदान किया जाता था।
मृत्यु संस्कार
अंत्येष्टि के अंतर्गत दाह अथवा दफन की दो विधियां थी।
जलाते समय चिता उत्तर दक्षिण दिशा में बनाई जाती थी। मृतक का सिर- दक्षिण की और रखा जाता था। सब को चिता पर रखने के बाद चिता की कोठी पर चूजे की बलि चढ़ाई जाती थी। बाकि हिन्दू रिति अनुसार था।
गोत्र
संथाल जनजाति बहिर्विवाही गोत्रों में विभक्त थी। गोत्र गोत्रार्द्ध अथवा सिव में बंटे होते थे। संथाल अपने गोत्र तथा सिव में विवाह नहीं करते थे। किंतु माता-पिता के शिव में विवाह हो सकते थे। संताल पिता का गोत्र पाता था माता का नहीं।
गोत्र चिन्ह के नाम पर गोत्र का नामांतरण होता था।पितृ वंशी गोत्रों की प्रधानता थी गोत्रों में प्रमुख थे हासंदा, मुर्मू, किस्कू, हेम्ब्रम,मरांडी, सोरेन, टुडू,बेसरा, पौडिया, बसके तथा चोड़े इत्यादि।
नतेदारी
नातेदारी रक्त तथा विवाह संबंधों पर आधारित थी।
पति के बड़े भाई, बड़ी ननद को देव तुल्य माना जाता था उनकी चारपाई पर बैठने तक की मनाही थी।
पति के बड़े भाई का स्पर्श हो जाने मात्र से आरूप जोगा नामक प्रायश्चित का विधान था।
बिटलाहा
संथालों में समगोत्रीय यौन संबंध निषिद्ध था। निषिद्ध यौन संबंध स्थापित होने पर अपराधियों को बीटलाहा अर्थात जाती बहिष्कृत किए जाने की सजा दी जाती थी।विठला की अंतिम स्वीकृति परगनैत द्वारा दी जाती थी। विटलाहा सुनिश्चित किए जाने के बाद गांव का योग मांझी या कोई एक अन्य व्यक्ति साल की टहनी लेकर प्रायः 1 सप्ताह पहले निकटवर्ती जनजाति हाट में जाता था। साल की टहनी में जितनी पत्तियां रहती थी इतने ही दिनों बाद विटलाहा की तिथि मानी जाती थी। गैर संथाल के साथ यौन संबंध करने वाले अभियुक्त को निश्चित ही गांव छोड़ना पड़ता था।
धर्म
संथाल जनजाति का धार्मिक जीवन अनेक देवी-देवताओं, प्रेत- आत्माओं में विश्वास तथा पर्व त्योहारों से जुड़ा हुआ था।
सनातन संथालो को बोंगा होड कहा जाता था।
संथालों का सबसे बड़ा देवता सिंगबोंगा (सूर्य) था।
सिंगबोंगा के बाद मरंगबुरू का स्थान था।
अन्य बोंगा हापडामको, गोसाई एरा, मोडेको, तूईको, जहेर एरा, मांझी हडाम बोंगा, ओडाक बोंगा(गृह देवता) तथा अबगे-बोंगा(परिवार का देवता) थे।
मांझी हडाम बोंगा का निवास स्थान मांझी जान कहलाता था।
प्रतीक संथाल गांव के मध्य में एक चौकोर चबूतरा होता था जिसे मांझी थान कहा जाता था इस जगह गांव के मांझी के भीतर प्रतीक रूप में पत्थर के टुकड़ों के रूप में स्थापित रहते थे। गांव की पंचायत भी प्रायः यहीं बैठा करती थी।
जाहेर थान गांव से थोड़ा हट कर साल अथवा महुआ पेड़ों के बीच अवस्थित होता था, प्रमुख देवी देवता यही निवास करते थे।
ईसाई संथालो को उमेंहाड कहा जाने लगा।
पर्व एवं त्योहार
गांव का नायके पुजारी सभी लोगों की ओर से व्रत रखता था तथा पूजा-अर्चना करता था।
एरोक पर्व आषाढ़ मास में मनाया जाता था।(यह पर्व बीज के भली-भांति उगने के लिए मनाया जाता था)।
सावन मास में धान की फसल हरि हो जाने पर हरियाड पर मनाया जाता था।
अगहन मास में जापाड पर्व मनाया जाता था। इस पर्व पर जाहेरथान में सूअर की बलि चढ़ाई जाती थी और अन्न की अभिवृद्धि के लिए प्रार्थना की जाती थी।
पौष मास में धान की फसल कट जाने पर सोहराय पर्व आता था। यह संथालों का सबसे पवित्र पर्व था। यह पांच दिवसीय पर्व था जिसमें तरह तरह के विधि विधान थे।
पौष मास के ही अंतिम दिनों में साकरात पर्व मनाया जाता था। यह 2 दिनों का पर्व था। पहला दिन मछलियां केकड़े तथा चूहे पकड़े जाते थे। दूसरे दिन जंगली पशु पक्षियों का शिकार होता था।
बाहा पर्व दूसरे नंबर का महत्वपूर्ण पर्व था जो फाल्गुन मास में साल वृक्षों पर फूल लगते ही मनाया जाता था । यह मुंडाओं तथा उरांवों के सरहुल पर्व की तरह था। वस्तुतः यह संथालों का वसंतोत्सव था। यह 3 दिनों का त्यौहार था।
चैत्र तथा वैशाख मास में बंधना पर्व मनाया जाता था। सभी देवी - देवताओं की पूजा कर बलि चढ़ाई जाती थी। मित्रों, सगे- संबंधियों से मिलना- जुलना तथा पीना, नाचना - गाना सप्ताह भर चलता रहता था।
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