चेरो
----चेराओं का संबंध द्रविड़ जनजाति से है।
---- इनकी अधिकांश आबादी पलामू में केन्द्रित थी।
--- चेराओं के नाक कान छेदने का कार्य मलहोरीन करती थी।
--- कान में दो दिन छेद करवाते थे पर नाक में दाहिने ओर एक छेद करवाना पसंद था। गोदना गोदवातीं थी, जो दस वर्ष तक करवा लिया जाता था।
----मकान के दक्षिण- पश्चिम कोने में चुल्हा होता था।
--- चेरो समाज पितृसत्तात्मक समाज था।
---- विधवा अपने देवर से शादी कर सकती थी।
---- विधवा को भरण-पोषण के लिए पारिवारिक सम्पत्ति का बराबर का हिस्सा दिया जाता था।
--- बड़े चेरो बबुआन कहे जाते थे।
---- चेरो महिला न तो शव यात्रा में शामिल हो सकती थी और न अक्सर तीर्थाटन के लिए निकल सकती थी। गांव के सामूहिक धार्मिक अनुष्ठानों में भी उसकी भागीदारी नहीं के बराबर थी। पंचायत में भी इनका कोई स्थान न था।
---- सउरीघर का सम्बंध प्रसव कक्ष से था।
----- चेराओं में बाल विवाह की प्रथा नहीं थी पर सामान्यतः 12 वर्ष की आयु तक बालक-बालिकाओं का विवाह हो जाता था।
--- लड़कों को 100-1000 रूपये तक तिलक देने की प्रथा थी पर जिन लड़कों को तिलक मिलने की संभावना नहीं रहती थी वे स्वयं कन्या को वधू मूल्य देते थे जिसे दस्तूरी कहते थे।
----- विवाह से पूर्व कन्या अवलोकन की प्रथा चेराओं में नहीं थी।
----- इनमें सगोत्र विवाह वर्जित था।
------ विवाह के तीन तरीके थे। डोला, घरांऊ(कन्या पक्ष के गरीब होने पर) और चढ़ाऊं (कन्या पक्ष के सम्पन्न होने पर)।
----- प्रत्येक गांव में एक बैगा(वंशानुगत) तथा कुछ में डिहवार भी होता था। बैगा देवी देवताओं की तथा डिहवार कुपित आत्माओं को पूजा करते थे।
----- भैयारी पंचायत के पदाधिकारी थे-- महतो या सभापति, छरीदार और पंच।ये पद वंशानुगत थे पर बाद में चुनाव से चयन किए जाने लगे। इनका काम पारंपरिक नियमों के उल्लंघन को रोकना, ठीक समय पर देवी- देवताओं की पूजा कराना।
----- कन्या यदि विवाह के वक्त विदा नहीं होता था तो उसका गवना होता था, बाद में पहली बार ससुराल जाते वक्त दोंगा होने का प्रथा था।
------ परित्यक्ता का पुनर्विवाह सगाई कहा जाता था।
----- चेरो हिन्दू पड़ोसियों की देखा देखी छठ व्रत में सूर्य की पूजा करते थे। रामनवमी भी मनाते थे।
---- बैशाख में सरहूल पूजा होती थी। इस मौके पर गमहेल स्थान में बैगा-खस्सी-मुर्गा तथा तपावन चढ़ाता था। आषाढ़ मास में हरियारी पूजा होती थी। श्रावण में सावनी पूजा तथा अच्छी वर्षा के लिए दुआर पार की पूजा होती थी। भाद्रपद मास में कर्म पूजा, अनन्त पूजा का प्रचलन था। जन्माष्टमी,जितिया,तीज व्रत,कार्तिक मास में सोहराई पूजा,पौष मास में तिलसंक्रांत पूजा, फाल्गुन में फगुआ आदि उत्सव मनाये जाते थे।