क्रमशः भाग ----2 गतांक से आगे।
भाग एक यहां से क्लिक कर पढ़े---: भाग एक यहां से ताना भगत आंदोलन झारखंड के आंदोलन में से एक।
5) आंदोलन का प्रचार-:
!)-हनुमान उरांव द्वारा प्रचार -:
ताना भगत आंदोलन के साथ एक अन्य व्यक्ति हनुमान और राम का भी नाम जुड़ा हुआ है। इनका जन्म स्थान भी जतरा भगत का ही गांव हो सकता है कि दोनों व्यक्ति एक ही रहे हो और एक नवीन संप्रदाय के बहादुर जनक के रूप में जतरा भगत का ही उपनाम हनुमान हो गया हो। एक समकालीन महिला, देवमानियां, जो सिसई थाना के बभुरी ग्राम के निवासी थी इस आंदोलन से संबद्ध थी। उसने जतरा भगत की काफी सहायता की थी। जतरा भगत के नाम से जुड़े भक्ति गीत, देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत हैं, जिनसे विदेशी वस्तुओं के प्रति उनकी घृणा भावना प्रकट होती है। यही कारण है कि धीरे-धीरे यह आंदोलन जमींदार, मिशन तथा अंततः ब्रिटिश विरुद्ध विरोधी हो गया।
!!) शिबू भगत द्वारा प्रचार-:
झारखंड के मांडर क्षेत्र में शिबू भगत द्वारा आंदोलन का प्रचार प्रसार किया गया। उसके विषय में यह कथन प्रचलित है कि मृत्यु के कुछ दिनों बाद वह पुनर्जीवित हो उठा था और उसी के अनुसार लोगों ने समझा कि वह ईश्वर से साक्षात्कार कर के लौट आया है। उसने कहा भी था कि भगवान ने उसे ताना संप्रदाय के प्रचार प्रसार के लिए पुनः भेज दिया है। थोड़ी सफलता मिलने पर उसने दामोदर नदी के तट पर काले बकरे की बलि देकर उसके मांस को अपने अनुयायियों में वितरित कर दिया। उसने कहा कि आंदोलन का ध्येय प्राप्त हो चुका है और अब ताना भगत मांस खा सकते थे। जो मांसभक्षी भगत थे वे अब जुलाहा भगत कह गए और यह मांडर क्षेत्र में ही अधिकतर पाए जाते हैं। जिन लोगों ने शिबू भगत का अनुसरण नहीं किया। वे 'अरुआ भगत' कहलाये,क्योंकि वे केवल अरवा चावल का ही सेवन करते थे।
!!!) बलराम भगत द्वारा प्रचार-:
झारखंड घाघरा क्षेत्र में बेलगाडा, निवासी बलराम भगत में भगत संप्रदाय की बागडोर संभाली। उसने गो पूजन पर अधिक जोर दिया। उसने गायों बैलों को हालों में जोतना अनुचित बताया। बलराम के अनुयायियों ने खेती करना छोड़ दिया और पशुपालक बन गए। वे दूध का सेवन करने लगे और अतिरिक्त दूध, घी और दही बेचने लगे। गौरक्षणी भगत कहे जाने वाले यह लोग मुख्यता घाघरा एवं गुमला थानों में रहते हैं।
IV) भीखू भगत द्वारा प्रचार-:
बिशनपुर थाना के उरावां ग्राम के भीखू भगत ने विष्णु संप्रदाय को स्थापित किया। अन्य भगत नेताओं की तरह वह हुआ भी अंग्रेज विरोधी था। अतः सरकार द्वारा उसे भी बंदी बना लिया गया। उसने कहा कि ताना भक्तों से उसका कुछ भी लेना देना नहीं था और वह केवल विष्णु का भक्त था। उसका आंदोलन गुप्त रूप से चलता रहा। बृहस्पतिवार की रात बैठ के हुआ करती थी, जिसमें सभी महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते थे।
ताना भगत आंदोलन का प्रचार
जतरा भगत द्वारा प्रारंभ किया गया यह आंदोलन संपूर्ण उरांव प्रदेश में जंगल की आग की तरह फैल। लोगों ने जमींदारों और अन्य गैर- आदिवासियों का काम पूरी तरह करना बंद कर दिया। अपने अनुयायियों को मजदूरी करने से रोकने के अपराध में जतरा भगत को उसके सात अनुयायियों के साथ गुमला के अनुमंडल पदाधिकारी की कचहरी में मुकदमा चलाने के लिए उपस्थित किया गया। 1916 ईस्वी में जतरा भगत को 1 वर्ष की सजा हुई और बाद में उसे इस शर्त पर छोड़ा गया कि वह अपने सिद्धांतों का कभी प्रचार नहीं करेगा और शांति बनाए रखेगा। किंतु जेल में मिली घोर प्रताडना के फलस्वरुप जेल से बाहर आने के 2 माह के भीतर ही उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार जतरा भगत नेपथ्य में चला गया किंतु उसका आंदोलन फलता फूलता रहा। रांची जिला के विभिन्न भागो में उसके किसी न किसी अनुयाई द्वारा नेतृत्व संभाल लिया गया। नए विचारों और नई मानसिकता से सामाजिक परिवेश इतना अनुप्राणित हुआ कि आंदोलन की प्रगति को अवरुद्ध करना कठिन हो गया। 1916ईं के अंत तक यह आंदोलन रांची जिला के दक्षिण-पश्चिम भागों में पश्चिम और मध्य भागों को लंघता हुआ उत्तरी भागों में फैल गया विशेषता बेड़ी,कुडु, मांडर थानों में। उत्तर की ओर यह पलामू जिला तक फैला।
भगतों के प्रस्ताव-:
भगतों द्वारा राजा के समक्ष चार प्रस्ताव रखे गये---
I) उन्हें स्वशासन प्रदान किया जाय।
II)राजा का पद समाप्त कर दिया जाये।
III) समानता स्थापित हो और
IV) भूमि कर समाप्त किया जाये क्योंकि भूमि ईश्वर प्रदत है। राजा ने उन मांगों को ठुकरा दिया जिससे टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गयी।यह आंदोलन सरगजा में भी फैला।
आंदोलन का प्रथम चरण
जहां ताना भगत का यह आंदोलन दो चरणों से होकर गुजरा, पहला चरण परिष्कार और परिहार से संबंध था अर्थात प्राचीन आत्माओं और बोंगाओं का विनाश और निष्कासन विशेषतः उनका जो केवल कष्ट पहुंचाते थे। पुरानी परंपराओं और रीति-रिवाजों का परित्याग विशेषता उनका जिन्होंने आदिवासियों को अन्य लोगों से निम्न स्तरीय बना दिया था।
दूसरा चरण था ----- आचरण संबंधी विशेष नियमों का निर्धारण और नए धर्म का संगठन और उसे निश्चित रूप देना। परिष्कार से संबंध पहले चरण में जादू टोना और भूत डायनों से संबंध मान्यताओं को समाप्त करना भी आवश्यक समझा गया। उरांव को यह विश्वास है कि व्यक्ति और समाज का भविष्य अज्ञात व्यक्तियों पर आधारित है। यह अज्ञात शक्तियां मनुष्य के क्रियाकलापों को प्रभावित करती रहती है। अतः यदि लोग इन शक्तियों को संतुष्ट रखते हैं तो उन्हें लाभ होता है और यदि ये अज्ञात शक्तियां कुपित हो जाती है तो बीमारी, मृत्यु और प्राकृतिक आपदाओं के रूप में कष्ट पहुंचाती हैं। अतः इन आत्माओं और बोंगाओं को समय-समय पर बलि चढ़ाकर संतुष्ट रखना आवश्यक है। बलि और कर्मकांड पर काफी व्यय होता था जो उरांव के लिए असहनीय था क्योंकि जनजातियों का आर्थिक जीवन पहले से ही कष्टमय था। उन्हें जमींदारों को सेवाएं देनी पड़ती थी और सरकार को भी कई प्रकार के कर देने पड़ते थे। 1820 से 1910 ईस्वी तक कई बार उन्हें दुर्भिक्ष ओं का सामना करना पड़ा। अल्पवृष्टि भी कष्टमय बना देती थी। सर्वाधिक प्रभावित भाग रांची जिला का पश्चिमी भाग था। जहां अधिकांश आबादी उरांवों की ही थी। अतः जब उरांव के अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो गया तो संभवत पुराने देवी देवताओं और पुरानी जीवनशैली में उनका विश्वास घटता गया। वे एक नए देवता की तलाश करने लगे जो पुराने देवी देवताओं से अधिक शक्तिशाली हो और उनका कष्ट निवारक हो।
दुरात्माओं को शांत करने के उपाय-:दुरात्मा और कष्ट दाई देवी देवताओं को निष्कासित करने के लिए ताना भक्तों द्वारा किए गए उपाय लगभग उसी तरह के थे जो उरांव मति द्वारा अपनाए जाते थे। उदाहरण के लिए नाच गाकर धर्मेश से यह प्रार्थना करना कि वह दुरात्माओं को निष्कासित कर दे। ऐसी प्रार्थना के समय ताना भगत तालियां बजाते थे और क्रमशः पैरों को उठाकर नाचते थे ।कभी-कभी यह प्रार्थना करते हुए गोल गोल घूमते थे, घुटनों के बल झुकते थे ,हाथ मिलाने के मुद्दा अपनाते थे और तब दूर आत्माओं तथा भूत प्रेतों को भाग जाने का आदेश देते थे। इसके लिए ताना भगत गांव के बाहर किसी खुली जगह में एकत्रित होते थे, जहां वे तब तक गाते और प्रार्थना करते थे। जब तक उस में से किसी एक में किसी दुरात्मा का प्रवेश ना हो जाता था। ऐसा व्यक्ति दौड़कर एक जगह जाता था जहां से सभी पहुंचते थे। इस जगह पर धर्मेश की प्रार्थना की जाती थी । सूर्य चंद्रमा पृथ्वी और सितारों का आवाहन किया जाता था। विशेष भक्ति से संपन्न व्यक्तियों-- जैसे बिरसा भगवान तक की प्रार्थना की जाती थी। मजे की बात यह थी कि जर्मन बाबा का भी आवाहन किया जाता था क्योंकि ताना परेशान हो सकते थे। उन दिनों जर्मनों की सफलता की चर्चा सर्वत्र हुआ करती थी और इन निरक्षर अज्ञानी किंतु धार्मिक दृष्टि से उत्साही भक्तों द्वारा जर्मन बाबा को एक अज्ञात किंतु शक्तिशाली देवता मान लिया गया। उनका विश्वास था कि अपने देवताओं के अतिरिक्त जर्मनों और हिंदुओं के देवताओं की पूजा कर वे जमींदारों और साहूकारों के चुंगल से बच सकते थे।
हिंदू एवं ईसाइयों से तुलना
ताना भगत हिंदुओं और ईसाइयों की तुलना में अपनी स्थिति से दुखी थे। उनका विश्वास था कि उनकी दशा तभी सुधर सकती थी जब वे ईश्वर से तादात्म्य में स्थापित करें। इसके लिए उन्होंने कुछ कर्मकांडो का भी आविष्कार किया और एक निश्चित आचार संहिता तैयार की। उनका कहना था कि सही कर्मकांड वही हो सकता था जो ईश्वर से सही संबंध स्थापित कर सकें। इसके लिए अपवित्र वस्तुओं का परित्याग कर शुद्ध जीवनयापन आवश्यक था तभी ईश्वर से संपर्क स्थापित किया जा सकता था और समस्त कष्टों से मुक्ति मिल सकती थी। उनकी आचार संहिता उरांव भक्तों अर्थात सोखाओं की आचार संहिता के समान है । भगत कर्मकांड के माध्यम से धर्मेश से तादात्म्य स्थापित करता है इसलिए वह शुद्ध जीवन अपनाता है और धर्मेश के प्रति समर्पित रहता है। ईश्वर की कृपा प्राप्ति लिए पूजन से पहले शुद्ध होना आवश्यक है।
भगतों की प्रचलित परंपरा---
मांस भक्षण का परित्याग करना इसलिए आवश्यक है कि जीव ईश्वर की देन है। अतः पूजा और नैवेद्य अर्पण से पहले स्नान आवश्यक है। पूजन के पहले भोजन निषिद्ध है। पारंपरिक उरांव व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक धार्मिक समारोह में बलि, नैवेद्य और हंडिया का चढ़ाया जाना आवश्यक था। लेकिन ताना भक्तों ने यह सब बंद कर दिया। वह अपनी देवकुरी(मंदिर) में फूल मिष्ठान चढ़ाने लगा और अगरबत्ती तथा घी का दिया जलाने लगा। उसके लिए धर्म केवल भय का कारण देवताओं को संतुष्ट करने की प्रक्रिया नहीं है। यह प्रक्रिया तो हृदय में धर्मेश को बैठा लेने की प्रक्रिया है। यह धर्म, प्रेम, पूजा और श्रद्धा पर आधारित है। ताना भगत के लिए पूर्वजों की आत्मा के अतिरिक्त सभी आत्मा दुरात्मा है और इसलिए उनका परिचय किया जाना चाहिए। वह केवल सर्वोच्च देवता धर्मेश में विश्वास करता है और उसकी अनंत शक्ति का उपयोग स्वजनों की भलाई के लिए करता है। वह ना तो स्वयं मदिरा का सेवन करता है और न मदिरा सेवन करने वालों के साथ बैठता है । वही स्वपाकी होता है और दूसरों के द्वारा पकाये गए अन्न से परहेज करता है। इस तरह ताना भक्तों की आचार संहिता के समान है।
ताना भक्तों द्वारा अखरा में नृत्य, जतराओं में शिकार और घुमकुरिया का भी परित्याग कर दिया गया। वे न तो रंगीन वस्त्र पहनते थे और ना किसी प्रकार का आभूषण धारण करते थे। उन्होंने गोदना का भी परित्याग कर दिया।डाइयनकुरी और बोंगाओं को बलि को भी निषेध कर दिया गया क्योंकि ईश्वर का निवास तो हृदय में होता है। यदि उनके गीतों और प्रार्थनाओं पर विचार किया जाए तो लगता है कि सब कुछ उसके अंतः करण से नि:सृत होता है। धर्मेश प्रेम और पवित्रता का प्रतीक है जो ना केवल संपूर्ण ब्राह्मंड में व्याप्त है बल्कि व्यक्ति के हृदय में भी अवस्थित है। स्वजनों के प्रति प्रेम और सद्भावना सभी जीवो के प्रति दयाभाव, भोजन और आचरण की शुद्धता भक्तों को मध्यकालीन संत भक्तों की परंपरा में स्थापित करने का प्रयास किया गया है। नये धर्म के अनुयायियों की बड़ी संख्या जगह जगह एकत्रित होने लगी और सूर्योदय तक भूत प्रेतों के निष्कासन के अभियान चलने लगे जिससे जमींदार परेशान हो गए। तना भक्तों द्वारा जमींदारों को कर देना बंद कर दिया गया और उनके खेतों की जुताई भी बंद कर दी। अतः स्थानीय जमींदार और साहूकार ताना भक्तों के संभावित विद्रोह से आतंकित हो उठे और उन्होंने पुलिस में इसकी शिकायत की। पुलिस के पदाधिकारियों जो ना इनके गीत और प्रार्थना को समझते थे और ना जिन्हें ताना भक्तों के इन कर्मकांडो को देखने के लिए दिया जाता था। इन्हें विद्रोही समझने लगे और उनकी सभाओं को गैरकानूनी मानने लगे । उनकी सभाओं पर भी प्रतिबंध लगाए गए और बहुतों को शांति भंग करने के नाम पर कचहरियों तक घसीटा गया।
आंदोलन का विरोध
यह सब कुछ इस आंदोलन को रोकने के लिए किया जा रहा था। यह आंदोलन धीरे-धीरे समय में शिथिल पड़ता गया क्योंकि नया धर्म भी भूमि संबंधी अधिकारों की रक्षा में अक्षम सिद्ध हुआ। दूसरी ओर सरकारी दमन का चक्र भी चलता रहा। ताना भगत धीरे-धीरे समझने लगे कि केवल धार्मिक आवेग के बल पर आंदोलन को ना सिर्फ लोकप्रिय बनाया जा सकता था, इसके लिए एक राजनीतिक आधार की आवश्यकता थी। अतः जब महात्मा गांधी ने 1921 ईस्वी में सविनय अवज्ञा आंदोलन को प्रारंभ किया तो कुडु थाना के सिद्ध भगत के नेतृत्व में ताना भगत पहली बार स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए। ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि उनकी दृष्टि में गांधीजी, जतरा भगत अथवा बिरसा भगवान के मूल उद्देश्यों में कोई अंतर नहीं था।
आंदोलन का राजनीतिक इतिहास----
ताना भगत कांग्रेस की ओर इसलिए भी आकर्षित हुए कि वे कांग्रेस को गांधी का पर्यायवाची मानते थे। ताना भक्तों के कई दल गया,कोलकाता, लाहौर इत्यादि में होने वाले कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में शामिल हुए। विशेष महत्वपूर्ण बात यह थी कि इन स्थानों तक की लंबी यात्राएं पांव पैदल की। उन्होंने चरखा को अपनाया और केवल खाद्य वस्तुओं का उपयोग करने लगे। उन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया तब से आज तक ताना भगतो के क्षेत्र में सर्वाधिक सक्रिय कांग्रेसी कार्यकर्ता इसी समुदाय से निकलते रहे हैं। वस्तुत: उनमें से कुछ यह भी समझते थे कि गांधी के रूप में जतरा भगत का पुनर्जन्म हुआ था। इस तरह एक आर्थिक और धार्मिक आंदोलन के रूप में शुरू हुआ,यह ताना भगत आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़कर एक राजनीतिक आंदोलन बन गया। कांग्रेसियों के रूप में इनकी अलग पहचान बनी। खद्दरधारी गांधी टोपी पहने शंख एवं घंटी बजाते ताना भगतों की टोली गांधीजी को अत्यंत प्रिय लगती थी। उन्होंने कहा भी था कि ताना भगत उनके सर्वाधिक प्रिय अनुयाई थे।
राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव -----
1930 ईस्वी में जब बारदोली आंदोलन शुरू हुआ तो ताना भगत भी इससे प्रभावित हुए और उन्होंने भी सरकार को कर देना बंद कर दिया। यह सब कुछ उन्होंने तब किया जब उन में ना तो कोई कांग्रेसी संगठन था और ना किसी कांग्रेसी कार्यकर्ता ने उन्हें ऐसा करने का परामर्श दिया था। उन्होंने जब यह देखा कि सरदार पटेल ने बारदोली में कर ना देने का अभियान छेड़ दिया है तो इन्होंने स्वत: कर देना बंद कर दिया। फलस्वरुप जमींदारों द्वारा उनकी जमीन नीलाम कराई गई और आज भी अनेक भूमिहीन ताना भगत है जो बटाईदारों अथवा कृषि मजदूरों की तरह जी रहे हैं। सभी आपदाओं के बावजूद भी आज भी कांग्रेस की घोर समर्थक है। इन स्वतंत्रता सेनानियों ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपना विशेष योगदान किया। फिर भी आज तक उनकी संपूर्ण भूमि नहीं लौटाई गई। जब बिहार में कांग्रेस की सरकार बनी तब ताना भगतों की जप्त जमीन को लौटाने की कोशिश अवश्य की गई लेकिन यह प्रयास अपूर्ण सिद्ध हुआ। अब कुछ ही वर्ष पूर्व थाना भगतो की भूमि लौटाने संबंधी एक अधिनियम को भी पारित किया गया है। उन्हें कृषि के विकास के लिए अनुदान भी मिलने लगे हैं। फिर भी उनकी स्थिति में अपेक्षाकृत कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। इस संदर्भ में स्मरणीय बात यह भी है कि आज ताना भगतों में केवल उरांव ही नहीं है। मुंडा और खड़िया भी शामिल है फिर भी अभी भी उनमें उरांवों की संख्या ज्यादा है। जिससे यह आंदोलन आज भी काफी सफल रहा है।