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25 नवम्बर का इतिहास

♓🅰♉🚩🅾♏ *भारतीय एवं विश्व इतिहास में 25 नवंबर की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ।* ☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆ 1667 - रूस के उत्तरी कॉकसस क्षेत्र के सेमाखा में ...

Wednesday, 28 February 2018

सुरों से सराबोर करने आएंगी भक्ति जागरण के एक कार्यक्रम जो है आपके इलाके में

सुरों से सराबोर करने आएंगी आपके इलाके में ।
बुधवार 28 फरवरी 2018

देवरी(गिरिडीह)हरि ॐ -: गिरिडीह जिला के देवरी प्रखंड़ अंतर्गत मनिकबाद पंचायत के बिगहा गाँव में अगामी 18 मार्च से आयोजन किए जाने वाले नौ दिवसीय रामचरित मानस महायज्ञ के अंतिम दिन 27 मार्च दिन मंगलवार को भक्ति जागरण के कार्यक्रम में भोजपुरी गायिका "देवी" का आगमन होने जा रहा है।तो बेशक जोरदार होने वाले इस कार्यक्रम का सपरिवार आनंद लेना ना भूले।

Sunday, 25 February 2018

कुछ दिल की बात आपके साथ।

हमें फिर से लड़ना होगा उन बुराइयों की खातिर।
उन चंद चतुर लोगों की बेहिसाब चतुराईयों के खातिर।।
यह वक्त हिसाब से अपने बदले या ना बदले।
हमें उठकर बदलना होगा वक्त को उन शातिर भाइयों के खातिर।।
*हमें फिर से लड़ना होगा उन बुराइयों के खातिर---2*

गुनाहों का दौर  शुरू कर उसने, मिटाने शुरू कर दिए अपने परछाइयों को फिर।
मर ना जाए फिर से कोई निर्बल बेसहारा हो कर,
चंद नोटों के बंडल के रुसवाइयों के खातिर ।।
*हमें फिर से लड़ना होगा उन बुराइयों के खातिर ---2*

टूट पड़ रहे है घर- घर से अब भी लोभी, सपने हवाईयों के खातिर।
दु:ख तो खुद झेल सकते नहीं पर दुःख दे रहे हैं चंद बंडल रुपयों की खातिर।।
*हमें फिर से लड़ना होगा उन बुराइयों के खातिर ---2*

अंजाम दे दे ना फिर से कोई छुप कर बुरा, निर्बल बेसहारों के ऊपर नकाब पहन कर फिर।
नकाब धारियों को हमें पकड़ना होगा,बेचारी के रूसवाइयों के खातिर।।
*हमें फिर से लड़ना होगा उन बुराइयों के खातिर ----2*

सुना है भाव नहीं मिलता यहाँ आपके दर्द और रुसवाइयों के खातिर।
टूट -टूट कर कितना जिंदा रहेगी बेचारी, फांसी लगा लेगी या तंग आकर खा लेगी गोलियाँ फिर।।
*हमें फिर से लड़ना होगा उन बुराइयों की खातिर ---2*

           *----हरि ओम्।*

Friday, 9 February 2018

आंग्ल प्राच्य विवाद अथवा प्राचीन पाश्चात्य विवाद---

*आंग्ल प्राच्य विवाद अथवा प्राच्य पाश्चात्य विवाद
*आंग्ल प्राच्य विवाद अथवा प्राचीन पाश्चात्य विवाद---*

      1813 के आज्ञा पत्र के अनुसार भारत में जनसाधारण की शिक्षा का संपूर्ण दायित्व कंपनी का था तथा इस कार्य हेतु प्रतिवर्ष ₹100000 की धनराशि सुरक्षित कर दी गई थी। इसके लिए 1823 ईसवी में एक 'लोक शिक्षा समिति' की स्थापना की गई। इस लोक को शिक्षा की सामान्य समिति में 10 सदस्य थे। उनमें दो दल थे। एक प्राच्य विद्या समर्थक दल था, जबकि दूसरी ओर आंग्ल था जो अंग्रेजी को शिक्षा के माध्यम के रूप में समर्थन था।  यह विवाद 20 वर्षों तक चलता रहा। यह विवाद विस्तृत रूप में इस प्रकार था। आंग्ल प्राच्य विवाद कि वास्तव में कुछ कारण थे --- जैसे----
!) 1813 का आज्ञा पत्र की धारा 43 में वर्णित शब्दों-- 'साहित्य',
'भारतीय विद्वान', भारतीय भाषा व निवासी आदि की स्पष्ट व्याख्या नहीं की गई थी।
!!) इस राजपत्र में शैक्षिक विकास हेतु ₹100000 की धनराशि की पेशकश की गई थी।
           किंतु इन दोनों बिंदुओं से संबंधित अनेक विवादास्पद प्रश्न दोनों दलों के लोगों द्वारा उठाए जाने लगे तथा दोनों ही समूह के द्वारा तर्कपूर्ण पत्र प्रस्तुत किए जा रहे थे , जिसको नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था।
        प्राच्य विद्या समर्थक दल का नेता एच.टी. प्रिंसेस था तथा कुछ विद्वान जैसे- लॉर्ड मिंटो, एच. विल्सन आदि भी इस वर्ग का समर्थन कर रहे थे। यह सभी लोग प्राचीन भारतीय साहित्य के समर्थक थे तथा चाहते थे कि भारत में शिक्षा का प्रसार -प्रचार भारतीय स्थानीय भाषाओं के माध्यम से हो तथा धारा 43 में वर्णित 'साहित्य' शब्द को यह अपने मतानुसार भारतीय प्राचीन साहित्य के रूप में ग्रहण कर रहे थे।
        यह दल भी दो दलों में विभक्त हो गया। पहले दल का प्रतिनिधित्व भारत के हितैषी लोग कर रहे थे, जो वास्तव में भारतीयों के हित में तर्क प्रस्तुत कर रहे थे जबकि दूसरी भाग के प्रतिनिधि ब्रिटिश हित की बात कर रहे थे।
             भारतीयता व उनके हितों की बात करने वाले दल के व्यक्तियों का मानना था कि भारत में जब भारतीय धर्म, दर्शन और साहित्य की शिक्षा दी जाए तो ही यहां के नागरिकों वा देश का विकास हो पाएगा। उन्होंने शिक्षा के माध्यम के रूप में संस्कृत, अरबी व फारसी जैसे भाषाओं का समर्थन किया। प्रिंसेस का तर्क था कि यदि भारतीयों को बलपूर्वक अंग्रेजी भाषा पढ़ाने का कार्य दिया जाएगा तो उनके विकास का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा।
            इसके विपरीत ब्रिटिश हित साधने वाले व्यक्तियों का मत था कि भारत में पाश्चात्य ज्ञान विज्ञान की शिक्षा देना अव्यवहारिक है। इसके अतिरिक्त कुछ का मत था कि भारतीय पश्चात्य ज्ञान, भाषा साहित्य और ज्ञान विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करने योग्य नहीं है।

नैतिकता का अर्थ विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक करें।
          अंततः स्पष्ट रूप से यह प्रमाणित हो गया था कि प्राच्यवादी दल के ब्रिटिश हित साधने वाले व्यक्ति भारतीय ज्ञान विज्ञान को भारत में संचालित करने के पक्ष में इसलिए थे, ताकि भारतीय जनता का विकास ना हो सके तथा वह ईसाई धर्म व संस्कृति अपनाने हेतु विवश ना हो सके।
      पाश्चात्यवादी दल में भी भारत के हित व ब्रिटिश हित दो प्रकार के व्यक्ति सम्मिलित थे। भारत के हित को देखते हुए राजा राममोहन राय जैसे विद्वान पाश्चात्य भाषा व शिक्षा पद्धति को भारत में प्रचलित करने के पक्षधर थे, ताकि भारतीय जनता भी अंग्रेजी शिक्षा व ज्ञान -विज्ञान का अध्ययन कर सके।  जबकि ईसाई धर्म को मानने वाले अंग्रेजों का मत था कि यदि भारतीय को अंग्रेजी शिक्षा प्रदान की जाएगी, तो भारत में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी भाषा, ईसाई धर्म व पाश्चात्य संस्कृति का प्रसार -प्रचार होगा व भारतीय संस्कृति का अंत हो जाएगा। क्योंकि अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण करना कुछ महँगा था। इसलिए केवल उच्च वर्ग की भारतीय ही अंग्रेजी शिक्षा ग्रहण कर सकेंगे।
             यह संपूर्ण विवाद लगभग 20 वर्षों के लंबे काल तक चला तथा 1834 में अंततः इस विवाद के अंत हेतू ब्रिटेन सरकार की ओर से लार्ड मैकाले भारत आया।


नैतिकता का अर्थ--

*नैतिकता का अर्थ--* साधारण भाषा में कहा जा सकता है कि परिवार, समाज व समूह के नैतिक नियमों का अनुपालन करना ही नैतिकता है। नैतिकता के अंतर्गत समाज द्वारा निर्धारित व्यवहार और आदर्श आते हैं, व्यक्ति के कार्य और व्यवहार नैतिकता से संबंध हो जाते हैं। नैतिकता की कोई निर्धारित परिभाषा नहीं दी जा सकती, इसके विकास में विद्यालय और अध्यापक, परिवार, पड़ोस, समूह, समुदाय और समाज की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
                   नैतिकता से अभिप्राय सामाजिक समूह के नैतिक नियमों को स्वीकार करने से है।MORAL शब्द लैटिन भाषा में MORES शब्द से निकला है। जिसका तात्पर्य है रीति, रिवाज अथवा लोकरीति। नैतिक रुप से कार्य करने का अर्थ है --- समूह में आचरण के प्रति आस्था होना और और अनैतिकता से तात्पर्य है-- सामाजिक आदर्शों का पालन करने में असमर्थ होना । अनैतिक व्यवहार समूह के अनुरूप नहीं होता । इसका यह अर्थ नहीं कि उसमें व्यक्ति की हानि होती है अथवा व्यक्ति जानबूझकर अनैतिक कार्य करता है, अपितु सामाजिक मर्यादाओं का ज्ञान ना होना भी इसका कारण है।
                  नैतिकता सामाजिक नियंत्रण का साधन है। सामाज - सम्मत व्यवहार तथा आदर्शों का सम्मिलित रुप ही नैतिकता का स्वरूप धारण करता है।  समाज के आदर्शों के प्रति स्वेच्छा से आचरण करना इसका ध्येय है। बाहर से अंदर की ओर अधिकार की पुष्टि ही इसका ध्येय है।भय ना होकर स्वेच्छा ही इसके आचरण का आधार है। व्यक्ति की भावनाएं कार्य से जुड़ जाती है। किसी भी कार्य को करते समय व्यक्ति यह सोचता है कि यह कार्य अनैतिक तो नहीं है। नैतिकता इतनी जटिल होती है कि वह बच्चों में नहीं पाई जाती। नैतिकता में दो प्रकार के उच्चतम दृष्टिकोण निहित होते हैं-- 1)-: बौद्धिक,  2)-:स्नायुविक। बालक को यह जानना आवश्यक हो जाता है कि  वह यह जाने कि सच क्या है और क्या झूठ। क्या गलत है और क्या सही साथ ही उसमें यह भावना भी विकसित होनी चाहिए कि वह सही कार्य करें और गलत कार्य से बचें।
 एल्डरिच के अनुसार, "बालक जब भी किसी कार्य को करने की इच्छा करता है तो उसे समाज से स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है। जब भी सामाजिक नियमों और व्यक्तित्व व्यवहार में संघर्ष उत्पन्न है तब नैतिक रूप से परिपक्व व्यक्ति उसके संतोष के लिए संघर्ष की स्थिति को कुशलतापूर्वक संभाल लेता है। संज्ञान का अर्थ" जानने के लिए यहाँ क्लिक करें

संवेग का अर्थ---

*संवेग का अर्थ---*
 संवेग प्राणी का वह आंतरिक अनुभव है, जिसमें उसकी मानसिक स्थिति को एक उथल- पुथल प्रवृत्ति के रूप में व्यक्त होती है। हम संवेग को प्रायः मूल प्रवृत्ति ही समझ लेते हैं, किंतु ऐसा मानना उचित नहीं है । इसमें कोई संदेह नहीं कि संवेग भी मूल प्रवर्ति है, किंतु दोनों में भिन्नता है। जहां मूल-प्रवृत्ति क्रियात्मक है, वही संवेग भावात्मक प्रवर्ति है ।
    संवेग का अंग्रेजी रूपांतरण 'EMOTION' है । जो लैटिन शब्द'EMOVERE' से बना है, जिसका अर्थ उत्तेजित करना होता है। इस शाब्दिक अर्थ को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि संवेग व्यक्ति की उत्तेजित अवस्था का दूसरा नाम है। वास्तव में संवेग एक जटिल अवस्था है। जिसमें कुछ शारीरिक प्रतिक्रियाएँ, जैसे -- हृदय गति में परिवर्तन, रक्तचाप में परिवर्तन आदि होती हैं। इनके अलावा शरीर के बाहरी अंगों,  जैसे-- हाथ,पैर , आंख, चेहरा आदि में भी कुछ परिवर्तन हो जाते हैं। जिसे देखकर यह समझा जा सकता है कि बालक संवेग की स्थिति में है । संवेग कि शारीरिक प्रतिक्रियाएं, अभिव्यंजक व्यवहार के अलावा एक आत्मनिष्ठ भाव भी होता है। सामान्यतः किसी भी संवेग में सुखद या दुःखद के भाव की अनुभूति पाई जाती है। जैसे-- भय में दुखद भाव की अनुभूति तथा खुशी में सुखद भाव की अनुभूति होती है। यही बात अन्य संवेगों की स्थिति में भी पाई जाती है।

Thursday, 8 February 2018

अध्यापकों के लिए संवेगात्मक विकास के निहितार्थ

*अध्यापकों के लिए संवेगात्मक विकास के निहितार्थ--*
 बालक के संवेगों के विकास पर ही बालक का शारीरिक, मानसिक व चारित्रिक विकास निर्भर होता है। शिक्षा का कार्य है कि सभ्य, सुशिक्षित, संस्कारित,अनुशासित और बहुआयामी व्यक्तित्व वाले नागरिकों का विकास करें। उचित रूप से संवेगों का प्रदर्शन व नियंत्रण करने में सफल बालक स्वयं और समाज दोनों के लिए हितकारी होते हैं। संवेगों के प्रशिक्षण में अध्यापकों की प्रमुख भूमिका होती है। बालक का व्यवहार उसके व्यक्तित्व का निर्धारण करता है और व्यवहार और व्यवहार संवेगों की उपस्थिति से प्रभावित होता है। संवेगों का उचित विकास नहीं होता है तो बालक का संपूर्ण व्यक्तित्व विघटित हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि अध्यापक विद्यार्थियों के संवेगात्मक विकास में सहायक बने। अतः अध्यापक को बालक के संवेगात्मक विकास और संवेग प्रशिक्षण विधियों से अवगत होना आवश्यक है। तभी वह अपने दायित्वों को पूर्ण करने में सफल हो सकता है। _अध्यापकों के लिए संवेगात्मक विकास के निहितार्थों को निम्न बिंदुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है---:_
1-: अध्यापक को शिक्षण की ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए जिसमें विद्यार्थी खुलकर अपने संवेगों की अभिव्यक्ति कर सकें और उनके मन में शैक्षणिक गतिविधियों के प्रति व्याप्त भय वा चिंताएँ दूर हो सकें।
2-: विद्यार्थियों को अपने संवेगों की अभिव्यक्ति के प्रोत्साहित करना अध्यापकों का कर्तव्य है और इसके लिए अध्यापकों को ऐसे अवसर सृजित करना चाहिए जिससे विद्यार्थियों की झिझक समाप्त हो सके।
3-: अध्यापकों को ध्यान रखना चाहिए कि बालक के संवेगों के विकास किए बिना उसका बौद्धिक विकास करना संभव नहीं है। अध्यापक को अपने अंदर यह क्षमता पैदा करनी चाहिए कि वह कक्षा के बाहर विषम परिस्थितियों में भी अपना भावनात्मक संतुलन बनाए रखें तथा तथा सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाएं. जिससे वह बालकों के साथ समुचित व्यवहार कर सकेगा।
4-: अध्यापकों को चाहिए कि विद्यार्थियों के माता-पिता से निरंतर संपर्क बनाएँ रखें। विद्यार्थियों के संवेग प्रशिक्षण में माता पिता का सहयोग प्राप्त करने के साथ-साथ विद्यार्थियों की शारीरिक कमजोरियों , न्यूनताओ, बीमारियों आदि से अवगत हो,  जिससे विद्यार्थियों के लिए उचित निर्देशन एवं परामर्श दे सके।
5-: अध्यापकों को माता-पिता को स्पष्ट रूप से अवगत कराना चाहिए कि बालकों के संवेगात्मक विकास पर पारिवारिक वातावरण का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। बालकों को अनुकूल वातावरण प्रदान करने के लिए माता-पिता को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
6-: अध्यापक की संबोधन क्षमता, वैयक्तिक आकृति, संयम, उत्साह, मानसिकता निष्पक्षता, शुभचिंतन, सहानुभूति बालक की संवेगों को प्रशिक्षित करने में सहायक होती है।
7-: पाठ्य सहगामी क्रियाओं का बालक के संवेगात्मक विकास में बड़ा योगदान होता है । इन कार्यक्रमों के द्वारा बालकों को आत्माभिव्यक्ति, स्वयं को तथा दूसरों को जानने की समझदारी ,स्वयं की रुचियों को व्यापक बनाने, स्वयं के कार्यों को नियंत्रित करने की अवसर प्राप्त होते है। अध्यापकों को पाठ्य सहगामी क्रियाओं की आयोजन में विशेष रुचि लेनी चाहिए ।
8-:गृह कार्य प्रदान करते समय अध्यापकों को बालकों की आयु और व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखना चाहिए
9-: अध्यापक को शिक्षण विधियों का चयन और शिक्षण कार्य में यह ध्यान रखना चाहिए कि बालक की संवेगात्मक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।

*संवेगों की विशेषताएं*

*संवेगों की विशेषताएं*---- :   संवेगों की मानव जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है. संवेगों की प्रकृति भावनात्मक होती है जो व्यक्ति को क्षणिक उत्तेजना प्रदान करते हैं। संवेगो को व्यक्ति के मुख-मुद्रा, वाणी तथा अन्य व्यवहार के अवलोकन से पहचाना जा सकता है। *संवेगों की निम्नलिखित विशेषताएं होती है---*
1-: संवेगों में व्यापकता पाई जाती है। संवेग पशु-पक्षी, बालक वृद्ध,  सभी में पाए जाते हैं।
2-: मनुष्य की सभी दशाओं एवं अवस्थाओं में संवेग पाए जाते हैं।
3-: संवेगात्मक अनुभूतियों के साथ-साथ कोई ना कोई मूल प्रवृत्ति अथवा मूलभूत आवश्यकता जुड़ी रहती है।
4-: सामान्य रूप से संवेग की उत्पत्ति प्रत्यक्षीकरण के माध्यम से होती है ।
5-: किसी भी संवेग को जागृत करने के लिए भावनाओं का होना आवश्यक है।
6-:प्रत्येक संवेगात्मक अनुभूति व्यक्ति में कई प्रकार के शारीरिक और शरीर संबंधी परिवर्तनों को जन्म देती है।
7-: संवेग में अस्थिरता पाई जाती है।
8-: संवेग मनोशारीरिक होता है।
9-:संवेग की दशा में बुद्धि काम नहीं करती है।
10-: संवेग पर परिस्थिति और ग्रंथियों का प्रभाव पड़ता है।
11-: संवेग का प्रकाशन हर एक व्यक्ति व्यक्तिगत ढंग से करता है।
12-: संवेग का परिणाम कोई क्रिया अवश्य होती है।
13-: प्रशिक्षण, ज्ञान ,अनुभव की वृद्धि आदि के परिणाम स्वरुप मनुष्य में विशेषकर संवेगों का स्थानांतरण होता है।

Sunday, 4 February 2018

राष्ट्रभाषा

*राष्ट्रभाषा*
        भाषा का दूसरा रूप 'राष्ट्रभाषा' का है। राष्ट्रभाषा वह होती है, जो देश के बहुसंख्यक लोगों द्वारा बोली जाती हो और जिसमें राष्ट्र के निवासी परस्पर विचारों का आदान प्रदान करते हो। स्वतंत्रता के पूर्व भी भारत की राष्ट्रभाषा सही मायने में हिंदी थी। हिंदी में ही धुर दक्षिण में स्थित रामेश्वरम् के आसपास के लोग भारतीयों का स्वागत करते थे, भारत के अनेक तीर्थो में लोग किसी भाषा का व्यवहार करते थे। कोलकाता, मुंबई, कराची, लाहौर आदि नगरों में यह भाषा अपरिचित नहीं थी। हमारे राष्ट्र भारत के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन था --14 सितंबर 1949। उस दिन भारतीय संविधान-- सभा ने सर्वसम्मति से स्वतंत्र भारत गणतंत्र- संघ की राजभाषा के रूप में स्वीकारा था । उस दिन तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, मराठी, गुजराती, पंजाबी, हिंदी, बांग्ला, असमिया और उड़िया को राज्यों की राजभाषा के रूप में स्वीकारा था। इसी राज्य की राजभाषा वर्ग में कोंकणी, नेपाली, मणिपुरी को भी सम्मिलित किया गया है । संविधान के इसी राजभाषा वर्ग में संस्कृत, उर्दू तथा सिंधी भाषा को राष्ट्रभाषा रूप में स्वीकारा गया है।

Saturday, 3 February 2018

भाषा का अर्थ

*भाषा का अर्थ--:* भाषा क्या है? इस पर विभिन्न विद्वानों ने अपने- अपने विचार एवं मत अलग- अलग तरीके से व्यक्त किए हैं। साधारणतया "भाषा" शब्द का प्रयोग विचारों अथवा भावों की अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त उन सभी साधनों के लिए होता है, जो चेतन प्राणियों एवं जड़ पदार्थों में देखें एवं सुने जाते हैं। उदाहरण के लिए मानव परस्पर विचार- विनियम के लिए जिन ध्वनि संकेतों को अपनाते हैं। वे सभी भाषा कहलाते हैं। पशु तथा पक्षी जिस ध्वनि का प्रयोग करके अपनी विविध भावों को व्यक्त करते हैं , उसे पशु एवं पक्षियों की भाषा कहा जाता है।
        भाषा मानव भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम है। यह विचार- विनियम का साधन है। यह भाव, विचार, अनुभव आदि को व्यक्त करने का संगीत एक साधन है।

मातृभाषा

*मातृभाषा--:* भाषा का प्रथम रुप ```'मातृभाषा'``` है। मातृभाषा का शाब्दिक अर्थ है -- माँ से ग्रहण की हुई भाषा, किन्तु हम 'जननी जन्मभूमिश्च' कह कर मां के विशाल रूप में मातृभूमि को भी देखते हैं। अतः जन्म भूमि में व्यवहृत भाषा को मातृभाषा कहते हैं । कभी-कभी मां की भाषा और मातृभूमि की स्वीकृत भाषा में अंतर होता है । उत्तर प्रदेश में अधिकांश छात्र प्रारंभ में अपनी माता के मुंह से अवधी,ब्रज, भोजपुरी, आदि सुनते हैं किंतु उत्तर प्रदेश की मातृभाषा हिंदी है। अवधी, ब्रज, भोजपुरी आदि हिंदी की बोलियां है । ये स्वतंत्र भाषाएँ नहीं है। इन्हें जनपद भाषा भी कहा जाता है। संसार के सभी देशों में स्वीकृत भाषाओं की अपनी-अपनी बोलियां भी है। अंग्रेजी इंग्लैंड की मातृभाषा है। किंतु वेल्स - जैसी समृद्ध भाषा को भी बोली का ही स्तर मिल सका है। जनपद भाषाओं को मातृभाषा के समकक्ष नहीं रखा जा सकता। बैलार्ड़ ने घर की बोली को 'माता की भाषा' और समाज द्वारा स्वीकृत भाषा को 'मातृभाषा' कहा है।

Friday, 2 February 2018

गामक विकास को प्रभावित करने वाले कारक

*गामक विकास को प्रभावित करने वाले कारक ।*
*1-:वंशानुक्रम--:* बालक के गामक विकास पर उसके माता-पिता तथा पूर्वजों की स्वास्थ्य का प्रभाव पड़ता है।
*2-:गर्भावस्था की दशाएं--* बालक के गामक शक्तियों का विकास गर्भावस्था की दशाओं पर निर्भर करता है। गर्भावस्था में भ्रूण में विकार आने से उसकी गामक शक्तियों में क्षीणता आ जाती है। माता- पिता का खान-पान, स्वास्थ्य तथा शारीरिक दशाओं का भ्रूण के विकास पर प्रभाव पड़ सकता है जो उसके गामक विकास को प्रभावित करता है।
*3-: शारीरिक विकास की दशाएं---:* बालक की हड्डियों मांसपेशियों तथा स्नायु तंत्र का सामान्य रूप से विकास होता है तो उसका गामक विकास सामान्य रूप से संभव होगा। क्योंकि इन्हीं कारको पर गामक विकास निर्भर करता है।
*4-:परिपक्वता---:* बालक की विभिन्न गुणों के विकास की परिपक्वता का उसके गामक विकास पर प्रभाव पड़ता है। यदि किसी गामक क्रिया हेतु, उसके शारीरिक या मानसिक गुण एक विशेष स्थिति में परिपक्व नहीं हो जाते तो वह काम क्रिया को नहीं कर सकते। जैसे-- चलने के लिए आवश्यक है कि शिशु के पैर की हड्डियां इतनी परिपक्व हो कि वह शरीर का बोझ संभाल सके।
*5-:आहार-:* बालक का खान-पान  तथा आहार उसके गामक विकास को प्रभावित करते हैं। खान-पान अथवा आहार वह ऊर्जा प्रदान करती है, जिससे उसके अंगों तथा मांस पेशियों में गति तथा वेग उत्पन्न हो सके। गामक विकास हेतु पौष्टिक एवं संतुलित आहार आवश्यक है ,जिससे उसके शरीर के अंग तथा मांसपेशियों हृष्ट- पुष्ट हो सके।
*6-: स्वास्थ्य-:* बालक के स्वास्थ्य का उसके गामक विकास पर प्रभाव पड़ता है। अस्वस्थ अथवा रोगी बालक कार्य करने में सक्षम नहीं होता, जिससे उसके अंग माँसपेशियाँ तथा स्नायुतंत्र शिथिल हो जाते हैं। अतः उसका गामक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
*7-: व्यायाम--:* बालक के गामक विकास पर व्यायाम एवं खेलकूद तथा मालिश आदि का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। इससे प्रत्येक आयु में उसके अंग- प्रत्यंग, मांसपेशियों तथा स्नायु तंत्र स्फूर्तिवान तथा संचालित रहते हैं तथा दृढ़ता प्रदान करते हैं। इसलिए जन्म के उपरांत से ही शिशु को तेल मालिश और व्यायाम कराया जाता है। खेल कूद और शारीरिक कार्य भी व्यायाम  का ही रूप है।
*8-: अधिगम--:*  अधिगम का भी प्रभाव बालक के गामक विकास पर पड़ता है। बालक विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों के प्रति समायोजन स्थापित करने का प्रयास करता है और सफलता प्राप्त करने हेतु गामक कुशलता अर्जित करता है। बालक प्रायः सभी क्रियात्मक कार्यों को करना सीखता है, इसके लिए वह किसी कार्य को करने का अभ्यास करता है तथा त्रुटियों को सुधारता है। गामक कौशल के विकास में अनुदेश, प्रदर्शन तथा शिक्षण आदि का प्रभाव पड़ता है। जिनका संबंध अधिगम से ही होता है।

Thursday, 1 February 2018

गामक विकास के अर्थ वा इसकी विशेषताएँ।

*Q . गामक विकास के अर्थ वा इसकी विशेषताएँ।*
उत्तर-: गामक विकास से तात्पर्य बालकों में उनकी मांसपेशियों तथा तंत्रिकाओं की समन्वित कार्य द्वारा अपनी शारीरिक क्रियाओं पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करने से होता है। जन्म लेने के बाद बच्चा हाथ, पैर हिलाने-डुलाने तथा फैलाने-सिकोड़ने की क्रिया करने लगता है और धीरे-धीरे गर्दन, आंख की पुतलियाँ; धड़ तथा अन्य अंग चलाने लगता है।
          यही अंगों की संचालन के क्रिया और उसमें होने वाले प्रगतिशील एवं अपेक्षित परिवर्तन को गामक विकास कहते हैं । *हरलॉक* के अनुसार-- "गामक विकास से अभिप्राय है-- मांसपेशियों की उन गतिविधियों का नियंत्रण जो जन्म के समय के पश्चात निरर्थक एवं अनिश्चित होती है।" गामक विकास में शरीर के अंगों, मांसपेशियों तथा स्नायुमंडल की शक्तियां एवं क्रियाशीलता अथवा क्षमता की समन्वित व्याख्या की जाती है। *क्रो एवं क्रो* ने गामक विकास के संबंध में विचार व्यक्त करते हुए कहा है-- " स्नायुमंडल तथा मांसपेशियों की क्रियाओं के समीकरण द्वारा जो शारीरिक क्रियाकलाप संभव हो सकता है, उन्हें गामक क्रिया कहते हैं।" गामक क्रियाओं में गतिशीलता एवं उसका ठीक ठाक होना भी सम्मिलित है। *गैरिसन* के अनुसार--- " शक्ति, अंग- सामंजस्य तथा गति का और हाथ पैर एवं शरीर की मांसपेशियों के ठीक-ठाक उपयोग का विकास बालक की संपूर्ण विकास की एक महत्वपूर्ण विशेषता है।"  गामक विकास का महत्व बाल्यावस्था तक ही सीमित नहीं है, बल्कि प्रौढ़ अथवा वयस्क अवस्था से लेकर मृत्युपर्यंत गामक विकास का महत्व है। जीवन की संपूर्ण अवस्थाओं में गामक दक्षता की आवश्यकता रहती है।
 *```गामक विकास की विशेषताएं*```
 *थाॅम्पसन* ने गामक विकास की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है----
1)-: विशिष्ट प्रवृतियाँ--: आरंभ में समूचा शरीर गति करता है, लेकिन धीरे-धीरे विशेष पेशी या पेशी समूह ही सही समय पर गति करता है । दूसरे शब्दों में , बच्चे की पेशी प्रतिक्रिया कम से कम अनुकूलित होती जाती है ।
2-: बड़ी से छोटी पेशी की ओर----:  बढ़ती आयु के बालक का सबसे पहले समन्वित नियंत्रण बड़े पेशी समूह पर स्थापित होता है।
3-: सिर से नीचे की ओर ---: गामक विकास में विकास की दिशा एक नियम है। सबसे पहले सिर के भाग में नियंत्रण दिखाई पड़ता है तथा क्रमशः धड़ में नीचे की और अवनत होता हुआ पैरों तक पहुंचता है । उदाहरणार्थ, जन्म के 1 सप्ताह बाद बच्चा अपना सिर उठाने लगता है लेकिन 1 वर्ष पूरा होने के बाद ही अपने पैरों पर खड़ा हो पाता है।  गामक विकास से पहले उन ढाँचों में होता है जो प्रमुख धुरी के अति निकट है और इसके बाद ही दुरस्त ढाँचों में होता है । उदाहरणार्थ, पेशी नियंत्रण सबसे पहले भुजाओं में और इसके बाद अंगुलियों में होता है।
4-: द्विपक्षीय से एकपक्षीय  प्रवृत्ति---:  चाल, शक्ति, समन्वय के निबंधनों में बच्चा परिपक्व बनता है तथा वैयक्तिक रूचि क्रमशः गामक कौशल में एकपक्षी कार्य करने का मार्ग बनता है।  हाथ को प्राथमिकता देने की परिवर्ती से इसको समझा जा सकता है। आयु बढ़ने के साथ बच्चा अपने एक हाथ का लगातार प्रयोग करता है।
5-: पेशियों के अधिकतम कार्य की न्यूनतम कार्य की ओर बढ़ने की परिवर्ती--:  परिपक्व होने के साथ ही बच्चा पेशियों से अधिक कार्य करने लगता है। बड़ी मात्रा में पेशी का निष्प्रयोजन कार्य प्रारंभ होता है और बाद में वह पेशी शक्ति को अधिक से अधिक खर्च करने लगता है। जब बच्चा चलना सीखता है तो पेशियों की गति बहुत तीव्र होने लगती है । नए गामक कौशल में प्रवीण बनने का प्रयास करते समय बच्चों में आतुरता और जल्दबाजी प्रत्यक्षता देखी जा सकती है।
6-: सामान्य क्रमिकता-:  बच्चों के गामक विकास में एक क्रमिक व्यवस्था दिखाई पड़ती है। सबसे पहले आंखों का संतुलन बनता है। इसके पश्चात सिर भाग्य की मुद्रा में नियंत्रण और बाद में क्रमशः धड़ भाग में नियंत्रण स्थापित होता है। इसके पश्चात टांगो की गति में अंतिम नियंत्रण स्थापित होने पर बच्चा सरकना, कोहनी के बल चलना, खड़ा होना और चलना सीखता है। इस कथन की पुष्टि हरलॉक में यह कहकर कि है कि शिरोभाग में गामक विकास सबसे पहले होता है। इसके पश्चात भुजाओं और हाथों तथा अंत में टांगो की गामक शक्ति का विकास होता है।
         कई पहलुओं पर गामक विकास सुस्थिर क्रम को अपनाता है किंतु कुछ व्यक्तिगत विभिन्नताएं इस बात का साक्ष्य हैं कि कुछ बच्चे इसके श्रेणीक्रम में कुछ सोपानों को छलांग मारकर पार कर जाते हैं और कुछ अन्य पेशियों के गति करने के अवसर कम मिलने के कारण अपने हाथों पर नियंत्रण बहुत समय बाद प्राप्त कर पाते हैं। कुछ ऐसे ही होते हैं जो प्रेरित और उत्साहित किए जाने पर समय से भी पहले पेशी नियंत्रण की क्षमता प्राप्त कर लेते हैं। स्वास्थ्य, आहार आदि कुछ ऐसे कारक है जो बालकों के गामक विकास में अंतर कर देते हैं।