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25 नवम्बर का इतिहास

♓🅰♉🚩🅾♏ *भारतीय एवं विश्व इतिहास में 25 नवंबर की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ।* ☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆ 1667 - रूस के उत्तरी कॉकसस क्षेत्र के सेमाखा में ...

Sunday, 13 December 2020

ताना भगत आंदोलन, भाग--2

 


क्रमशः भाग ----2 गतांक से आगे।

भाग एक यहां से क्लिक कर पढ़े---: भाग एक यहां से ताना भगत आंदोलन झारखंड के आंदोलन में से एक।


5) आंदोलन का प्रचार-:
!)-हनुमान उरांव द्वारा प्रचार -:
ताना भगत आंदोलन के साथ एक अन्य व्यक्ति हनुमान और राम का भी नाम जुड़ा हुआ है। इनका जन्म स्थान भी जतरा भगत का ही गांव हो सकता है कि दोनों व्यक्ति एक ही रहे हो और एक नवीन संप्रदाय के बहादुर जनक के रूप में जतरा भगत का ही उपनाम हनुमान हो गया हो। एक समकालीन महिला, देवमानियां, जो सिसई थाना के बभुरी ग्राम के निवासी थी इस आंदोलन से संबद्ध थी उसने जतरा भगत की काफी सहायता की थी। जतरा भगत के नाम से जुड़े भक्ति गीत, देश प्रेम की भावना से ओतप्रोत हैं, जिनसे विदेशी वस्तुओं के प्रति उनकी घृणा भावना प्रकट होती है। यही कारण है कि धीरे-धीरे यह आंदोलन जमींदार, मिशन तथा अंततः ब्रिटिश विरुद्ध विरोधी हो गया।
!!) शिबू भगत द्वारा प्रचार-:
झारखंड के मांडर क्षेत्र में शिबू भगत द्वारा आंदोलन का प्रचार प्रसार किया गया। उसके विषय में यह कथन प्रचलित है कि मृत्यु के कुछ दिनों बाद वह पुनर्जीवित हो उठा था और उसी के अनुसार लोगों ने समझा कि वह ईश्वर से साक्षात्कार कर के लौट आया है। उसने कहा भी था कि भगवान ने उसे ताना संप्रदाय के प्रचार प्रसार के लिए पुनः भेज दिया है। थोड़ी सफलता मिलने पर उसने दामोदर नदी के तट पर काले बकरे की बलि देकर उसके मांस को अपने अनुयायियों में वितरित कर दिया। उसने कहा कि आंदोलन का ध्येय प्राप्त हो चुका है और अब ताना भगत मांस खा सकते थे। जो मांसभक्षी भगत थे वे अब जुलाहा भगत कह गए और यह मांडर क्षेत्र में ही अधिकतर पाए जाते हैं। जिन लोगों ने शिबू भगत का अनुसरण नहीं किया। वे 'अरुआ भगत' कहलाये,क्योंकि वे केवल अरवा चावल का ही सेवन करते थे।
!!!) बलराम भगत द्वारा प्रचार-:
झारखंड घाघरा क्षेत्र में बेलगाडा, निवासी बलराम भगत में भगत संप्रदाय की बागडोर संभाली। उसने गो पूजन पर अधिक जोर दिया। उसने गायों बैलों को हालों में जोतना अनुचित बताया। बलराम के अनुयायियों ने खेती करना छोड़ दिया और पशुपालक बन गए। वे दूध का सेवन करने लगे और अतिरिक्त दूध, घी और दही बेचने लगे। गौरक्षणी भगत कहे जाने वाले यह लोग मुख्यता घाघरा एवं गुमला थानों में रहते हैं।
IV) भीखू भगत द्वारा प्रचार-:
बिशनपुर थाना के उरावां ग्राम के भीखू भगत ने विष्णु संप्रदाय को स्थापित किया। अन्य भगत नेताओं की तरह वह हुआ भी अंग्रेज विरोधी था। अतः सरकार द्वारा उसे भी बंदी बना लिया गया। उसने कहा कि ताना भक्तों से उसका कुछ भी लेना देना नहीं था और वह केवल विष्णु का भक्त था। उसका आंदोलन गुप्त रूप से चलता रहा। बृहस्पतिवार की रात बैठ के हुआ करती थी, जिसमें सभी महत्वपूर्ण निर्णय लिए जाते थे।
         ताना भगत आंदोलन का प्रचार
जतरा भगत द्वारा प्रारंभ किया गया यह आंदोलन संपूर्ण उरांव प्रदेश में जंगल की आग की तरह फैल।  लोगों ने जमींदारों और अन्य गैर- आदिवासियों का काम पूरी तरह करना बंद कर दिया। अपने अनुयायियों को मजदूरी करने से रोकने के अपराध में जतरा भगत को उसके सात अनुयायियों के साथ गुमला के अनुमंडल पदाधिकारी की कचहरी में मुकदमा चलाने के लिए उपस्थित किया गया। 1916 ईस्वी में जतरा भगत को 1 वर्ष की सजा हुई और बाद में उसे इस शर्त पर छोड़ा गया कि वह अपने सिद्धांतों का कभी प्रचार नहीं करेगा और शांति बनाए रखेगा। किंतु जेल में मिली घोर प्रताडना के फलस्वरुप जेल से बाहर आने के 2 माह के भीतर ही उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार जतरा भगत नेपथ्य में चला गया किंतु उसका आंदोलन फलता फूलता रहा। रांची जिला के विभिन्न भागो में उसके किसी न किसी अनुयाई द्वारा नेतृत्व संभाल लिया गया। नए विचारों और नई मानसिकता से सामाजिक परिवेश इतना अनुप्राणित हुआ कि आंदोलन की प्रगति को अवरुद्ध करना कठिन हो गया। 1916ईं के अंत तक यह आंदोलन रांची जिला के दक्षिण-पश्चिम भागों में पश्चिम और मध्य भागों को लंघता हुआ उत्तरी भागों में फैल गया विशेषता बेड़ी,कुडु, मांडर थानों में। उत्तर की ओर यह पलामू जिला तक फैला।

भगतों के प्रस्ताव-:
भगतों द्वारा राजा के समक्ष चार प्रस्ताव रखे गये---
I) उन्हें स्वशासन प्रदान किया जाय।
II)राजा का पद समाप्त कर दिया जाये।
III) समानता स्थापित हो और
IV) भूमि कर समाप्त किया जाये क्योंकि भूमि ईश्वर प्रदत है। राजा ने उन मांगों को ठुकरा दिया जिससे टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गयी।यह आंदोलन सरगजा में भी फैला।

आंदोलन का प्रथम चरण

जहां ताना भगत का यह आंदोलन दो चरणों से होकर गुजरा, पहला चरण परिष्कार और परिहार से संबंध था अर्थात प्राचीन आत्माओं और बोंगाओं का विनाश और निष्कासन विशेषतः उनका जो केवल कष्ट पहुंचाते थे। पुरानी परंपराओं और रीति-रिवाजों का परित्याग विशेषता उनका जिन्होंने आदिवासियों को अन्य लोगों से निम्न स्तरीय बना दिया था।
दूसरा चरण था ----- आचरण संबंधी विशेष नियमों का निर्धारण और नए धर्म का संगठन और उसे निश्चित रूप देना। परिष्कार से संबंध पहले चरण में जादू टोना और भूत डायनों से संबंध मान्यताओं को समाप्त करना भी आवश्यक समझा गया। उरांव को यह विश्वास है कि व्यक्ति और समाज का भविष्य अज्ञात व्यक्तियों पर आधारित है। यह अज्ञात शक्तियां मनुष्य के क्रियाकलापों को प्रभावित करती रहती है। अतः यदि लोग इन शक्तियों को संतुष्ट रखते हैं तो उन्हें लाभ होता है और यदि ये अज्ञात शक्तियां कुपित हो जाती है तो बीमारी, मृत्यु और प्राकृतिक आपदाओं के रूप में कष्ट पहुंचाती हैं। अतः इन आत्माओं और बोंगाओं को समय-समय पर बलि चढ़ाकर संतुष्ट रखना आवश्यक है। बलि और कर्मकांड पर काफी व्यय होता था जो उरांव के लिए असहनीय था क्योंकि जनजातियों का आर्थिक जीवन पहले से ही कष्टमय था। उन्हें जमींदारों को सेवाएं देनी पड़ती थी और सरकार को भी कई प्रकार के कर देने पड़ते थे। 1820 से 1910 ईस्वी तक कई बार उन्हें दुर्भिक्ष ओं का सामना करना पड़ा। अल्पवृष्टि भी कष्टमय बना देती थी। सर्वाधिक प्रभावित भाग रांची जिला का पश्चिमी भाग था। जहां अधिकांश आबादी उरांवों की ही थी। अतः जब उरांव के अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो गया तो संभवत पुराने देवी देवताओं और पुरानी जीवनशैली में उनका विश्वास घटता गया। वे एक नए देवता की तलाश करने लगे जो पुराने देवी देवताओं से अधिक शक्तिशाली हो और उनका कष्ट निवारक हो।

दुरात्माओं को शांत करने के उपाय-:दुरात्मा और कष्ट दाई देवी देवताओं को निष्कासित करने के लिए ताना भक्तों द्वारा किए गए उपाय लगभग उसी तरह के थे जो  उरांव मति द्वारा अपनाए जाते थे। उदाहरण के लिए नाच गाकर धर्मेश से यह प्रार्थना करना कि वह दुरात्माओं को निष्कासित कर दे। ऐसी प्रार्थना के समय ताना भगत तालियां बजाते थे और क्रमशः पैरों को उठाकर नाचते थे ।कभी-कभी यह प्रार्थना करते हुए गोल गोल घूमते थे, घुटनों के बल झुकते थे ,हाथ मिलाने के मुद्दा अपनाते थे और तब दूर आत्माओं तथा भूत प्रेतों को भाग जाने का आदेश देते थे। इसके लिए ताना भगत गांव के बाहर किसी खुली जगह में एकत्रित होते थे, जहां वे तब तक गाते और प्रार्थना करते थे। जब तक उस में से किसी एक में किसी दुरात्मा का प्रवेश ना हो जाता था। ऐसा व्यक्ति दौड़कर एक जगह जाता था जहां से सभी पहुंचते थे। इस जगह पर धर्मेश की प्रार्थना की जाती थी । सूर्य चंद्रमा पृथ्वी और सितारों का आवाहन किया जाता था। विशेष भक्ति से संपन्न व्यक्तियों-- जैसे बिरसा भगवान तक की प्रार्थना की जाती थी। मजे की बात यह थी कि जर्मन बाबा का भी आवाहन किया जाता था क्योंकि ताना परेशान हो सकते थे। उन दिनों जर्मनों की सफलता की चर्चा सर्वत्र हुआ करती थी और इन निरक्षर अज्ञानी किंतु धार्मिक दृष्टि से उत्साही भक्तों द्वारा जर्मन बाबा को एक अज्ञात किंतु शक्तिशाली देवता मान लिया गया। उनका विश्वास था कि अपने देवताओं के अतिरिक्त जर्मनों और हिंदुओं के देवताओं की पूजा कर वे जमींदारों और साहूकारों के चुंगल से बच सकते थे।

     हिंदू एवं ईसाइयों से तुलना

ताना भगत हिंदुओं और ईसाइयों की तुलना में अपनी स्थिति से दुखी थे। उनका विश्वास था कि उनकी दशा तभी सुधर सकती थी जब वे ईश्वर से तादात्म्य में स्थापित करें। इसके लिए उन्होंने कुछ कर्मकांडो  का भी आविष्कार किया और एक निश्चित आचार संहिता तैयार की। उनका कहना था कि सही कर्मकांड वही हो सकता था जो ईश्वर से सही संबंध स्थापित कर सकें। इसके लिए अपवित्र वस्तुओं का परित्याग कर शुद्ध जीवनयापन आवश्यक था तभी ईश्वर से संपर्क स्थापित किया जा सकता था और समस्त कष्टों से मुक्ति मिल सकती थी। उनकी आचार संहिता उरांव भक्तों अर्थात सोखाओं की आचार संहिता के समान है । भगत कर्मकांड के माध्यम से धर्मेश से तादात्म्य स्थापित करता है इसलिए वह शुद्ध जीवन अपनाता है और धर्मेश के प्रति समर्पित रहता है ईश्वर की कृपा प्राप्ति लिए पूजन से पहले शुद्ध होना आवश्यक है।

भगतों की प्रचलित परंपरा---
मांस भक्षण का परित्याग करना इसलिए आवश्यक है कि जीव ईश्वर की देन है। अतः पूजा और नैवेद्य अर्पण से पहले स्नान आवश्यक है। पूजन के पहले भोजन निषिद्ध है। पारंपरिक उरांव व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक धार्मिक समारोह में बलि, नैवेद्य और हंडिया का चढ़ाया जाना आवश्यक था। लेकिन ताना भक्तों ने यह सब बंद कर दिया। वह अपनी देवकुरी(मंदिर) में फूल मिष्ठान चढ़ाने लगा और अगरबत्ती तथा घी का दिया जलाने लगा। उसके लिए धर्म केवल भय का कारण देवताओं को संतुष्ट करने की प्रक्रिया नहीं है। यह प्रक्रिया तो हृदय में धर्मेश को बैठा लेने की प्रक्रिया है। यह धर्म, प्रेम, पूजा और श्रद्धा पर आधारित है। ताना भगत के लिए पूर्वजों की आत्मा के अतिरिक्त सभी आत्मा दुरात्मा है और इसलिए उनका परिचय किया जाना चाहिए वह केवल सर्वोच्च देवता धर्मेश में विश्वास करता है और उसकी अनंत शक्ति का उपयोग स्वजनों की भलाई के लिए करता है। वह ना तो स्वयं मदिरा का सेवन करता है और न मदिरा सेवन करने वालों के साथ बैठता है । वही स्वपाकी होता है और दूसरों के द्वारा पकाये गए अन्न से परहेज करता है। इस तरह ताना भक्तों की आचार संहिता के समान है।
             ताना भक्तों द्वारा अखरा में नृत्य, जतराओं में शिकार और घुमकुरिया का भी परित्याग कर दिया गया।  वे न तो रंगीन वस्त्र पहनते थे और ना किसी प्रकार का आभूषण धारण करते थे। उन्होंने गोदना का भी परित्याग कर दिया।डाइयनकुरी और बोंगाओं को बलि को भी निषेध कर दिया गया क्योंकि ईश्वर का निवास तो हृदय में होता है। यदि उनके गीतों और प्रार्थनाओं पर विचार किया जाए तो लगता है कि सब कुछ उसके अंतः करण से नि:सृत होता है। धर्मेश प्रेम और पवित्रता का प्रतीक है जो ना केवल संपूर्ण ब्राह्मंड में व्याप्त है बल्कि व्यक्ति के हृदय में भी अवस्थित है। स्वजनों के प्रति प्रेम और सद्भावना सभी जीवो के प्रति दयाभाव, भोजन और आचरण की शुद्धता भक्तों को मध्यकालीन संत भक्तों की परंपरा में स्थापित करने का प्रयास किया गया हैनये धर्म के अनुयायियों की बड़ी संख्या जगह जगह एकत्रित होने लगी और सूर्योदय तक भूत प्रेतों के निष्कासन के अभियान चलने लगे जिससे जमींदार परेशान हो गए। तना भक्तों द्वारा जमींदारों को कर देना बंद कर दिया गया और उनके खेतों की जुताई भी बंद कर दी। अतः स्थानीय जमींदार और साहूकार ताना भक्तों के संभावित विद्रोह से आतंकित हो उठे और उन्होंने पुलिस में इसकी शिकायत की। पुलिस के पदाधिकारियों जो ना इनके गीत और प्रार्थना को समझते थे और ना जिन्हें ताना भक्तों के इन कर्मकांडो को देखने के लिए दिया जाता था इन्हें विद्रोही समझने लगे और उनकी सभाओं को गैरकानूनी मानने लगे । उनकी सभाओं पर भी प्रतिबंध लगाए गए और बहुतों को शांति भंग करने के नाम पर कचहरियों तक घसीटा गया।
               आंदोलन का विरोध
यह सब कुछ इस आंदोलन को रोकने के लिए किया जा रहा था। यह आंदोलन धीरे-धीरे समय में शिथिल पड़ता गया क्योंकि नया धर्म भी भूमि संबंधी अधिकारों की रक्षा में अक्षम सिद्ध हुआ। दूसरी ओर सरकारी दमन का चक्र भी चलता रहा। ताना भगत धीरे-धीरे समझने लगे कि केवल धार्मिक आवेग के बल पर आंदोलन को ना सिर्फ लोकप्रिय बनाया जा सकता था, इसके लिए एक राजनीतिक आधार की आवश्यकता थी। अतः जब महात्मा गांधी ने 1921 ईस्वी में सविनय अवज्ञा आंदोलन को प्रारंभ किया तो कुडु थाना के सिद्ध भगत के नेतृत्व में ताना भगत पहली बार स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गए। ऐसा उन्होंने इसलिए किया कि उनकी दृष्टि में गांधीजी, जतरा भगत अथवा बिरसा भगवान के मूल उद्देश्यों में कोई अंतर नहीं था।

          आंदोलन का राजनीतिक इतिहास----
ताना भगत कांग्रेस की ओर इसलिए भी आकर्षित हुए कि वे कांग्रेस को गांधी का पर्यायवाची मानते थे। ताना भक्तों के कई दल गया,कोलकाता, लाहौर इत्यादि में होने वाले कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में शामिल हुए। विशेष महत्वपूर्ण बात यह थी कि इन स्थानों तक की लंबी यात्राएं पांव पैदल की। उन्होंने चरखा को अपनाया और केवल खाद्य वस्तुओं का उपयोग करने लगे। उन्होंने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया तब से आज तक ताना भगतो के क्षेत्र में सर्वाधिक सक्रिय कांग्रेसी कार्यकर्ता इसी समुदाय से निकलते रहे हैं। वस्तुत: उनमें से कुछ यह भी समझते थे कि गांधी के रूप में जतरा भगत का पुनर्जन्म हुआ था। इस तरह एक आर्थिक और धार्मिक आंदोलन के रूप में शुरू हुआ,यह ताना भगत आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़कर एक राजनीतिक आंदोलन बन गया। कांग्रेसियों के रूप में इनकी अलग पहचान बनी। खद्दरधारी गांधी टोपी पहने शंख एवं घंटी बजाते ताना भगतों की टोली गांधीजी को अत्यंत प्रिय लगती थी। उन्होंने कहा भी था कि ताना भगत उनके सर्वाधिक प्रिय अनुयाई थे।

राष्ट्रीय आंदोलन का प्रभाव -----

1930 ईस्वी में जब बारदोली आंदोलन शुरू हुआ तो ताना भगत भी इससे प्रभावित हुए और उन्होंने भी सरकार को कर देना बंद कर दिया। यह सब कुछ उन्होंने तब किया जब उन में ना तो कोई कांग्रेसी संगठन था और ना किसी कांग्रेसी कार्यकर्ता ने उन्हें ऐसा करने का परामर्श दिया था। उन्होंने जब यह देखा कि सरदार पटेल ने बारदोली में कर ना देने का अभियान छेड़ दिया है तो इन्होंने स्वत: कर देना बंद कर दिया। फलस्वरुप जमींदारों द्वारा उनकी जमीन नीलाम कराई गई और आज भी अनेक भूमिहीन ताना भगत है जो बटाईदारों अथवा कृषि मजदूरों की तरह जी रहे हैं। सभी आपदाओं के बावजूद भी आज भी कांग्रेस की घोर समर्थक है। इन स्वतंत्रता सेनानियों ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपना विशेष योगदान किया। फिर भी आज तक उनकी संपूर्ण भूमि नहीं लौटाई गई। जब बिहार में  कांग्रेस की सरकार बनी तब ताना भगतों की जप्त जमीन को लौटाने की कोशिश अवश्य की गई लेकिन यह प्रयास अपूर्ण सिद्ध हुआ। अब कुछ ही वर्ष पूर्व थाना भगतो की भूमि लौटाने संबंधी एक अधिनियम को भी पारित किया गया है। उन्हें कृषि के विकास के लिए अनुदान भी मिलने लगे हैं। फिर भी उनकी स्थिति में अपेक्षाकृत कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। इस संदर्भ में स्मरणीय बात यह भी है कि आज ताना भगतों में केवल उरांव ही नहीं है। मुंडा और खड़िया भी शामिल है फिर भी अभी भी उनमें उरांवों की संख्या ज्यादा है। जिससे यह आंदोलन आज भी काफी सफल रहा है।

Saturday, 12 December 2020

ताना भगत आंदोलन

ताना भगत आंदोलन



भाग-1, भाग -2 लिंक नीचे दिया गया है।ताना भगत आंदोलन भाग --2 यहां क्लिक कर पढ़ें। संघर्ष की वो दोस्ता जिसे जतरा भगत ने कैसे अंजम दिया।

संपूर्ण झारखंड में सरदारी लड़ाई और बिरसा आंदोलन की सफलता के कारण निराशा छाई हुई थी तब अवसर का लाभ उठाकर शोषक वर्ग और भी अधिक प्रबल हो उठा था भूमि विवाद बढ़ रहे थे सामान्य लोग सर उठाकर चल नहीं सकते थे बिगारी आम समस्या बन गई थी उन्हीं दिनों अंग्रेज गवर्नर के आरामगाह के रूप में पलामू जिले के नेतरहाट घाटी को विकसित किया जा रहा था पहाड़ों पर सड़क एवं बंगलों के निर्माण में आसपास के लोगों का उपयोग बलों तथा खतरों अर्थात पशुओं जैसा किया जा रहा था स्थानीय जमींदारों और पुलिस की सांठगांठ से आम आदमी के साथ मानवीय व्यवहार हो रहा था उसी कालखंड में देवी कृपा से जत्रा उड़ान का उदय हुआ।

1) जतरा (ताना) भगत का परिचय-:
झारखंड में सुविख्यात ताना भगत आंदोलन के जनक जतरा भगत का जन्म अट्ठारह सौ अट्ठासी ईस्वी में गुमला जिले के बिशनपुर प्रखंड के अंतर्गत चिंगरी नावटोला में हुआ था। इनके पिता का नाम कोहरा भगत और माता का नाम लिवरी भगत तथा इनकी पत्नी बुधनी भगत थी। यद्यपि जतरा भगत की जन्म तिथि ठीक ठाक ज्ञात नहीं है किंतु आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को सामान्य मान्यता मिलने के कारण प्रत्येक वर्ष गांधी जयंती के दिन ही चिंगरी ग्राम में इनकी जयंती मनाई जाती है। और भी अधिक लिंक से पढें--https://alltimesupehitknowledge.blogspot.com/2020/09/blog-post_8.html

2) जतरा भगत की शिक्षा दीक्षा-:
मान्यता है कि गुरु ग्राम, हेसराग के श्री तुरिया भगत से तंत्र मंत्र की विद्या सीखने के क्रम में जतरा भगत को 1914 ईस्वी में अचानक आत्मबोध हुआ। उन्होंने जाना कि यदि तंत्र मंत्र से बड़ी-बड़ी बीमारियां ठीक हो सकती है और लोगों का आत्मविश्वास लौट सकता है तो क्यों ना इसके माध्यम से समाज में व्याप्त अत्याचार रूपी बीमारी को भी ठीक किया जाए। जनजातियों पर अंग्रेजी राज के अत्याचार, जमींदारों द्वारा बेगारी, समाज में फैले अंधविश्वास एवं नाना प्रकार की कुरीतियों से पीड़ित आदिवासी समुदाय को सन्मार्ग दिखाने का संकल्प लेकर युवा जतरा उरांव जतरा भगत बन गया था।

3) ताना भगत आंदोलन का प्रारंभ-:
इस प्रकार ताना भगत आंदोलन की आरंभ अप्रैल 1914 ईस्वी में हुआ। वस्तुतः टाना भगत उरांवों की वह शाखा है , जिसमें कुडखों के मूल धर्म कुडुख धर्म को अपना लिया था। 'ताना' शब्द का अर्थ तनना या खींचना है। ताना भगत अपनी गिरी हुई स्थिति से खिन्न थे और इस में परिवर्तन लाना चाहते थे। उन्होंने भली प्रकार समझ लिया था कि अपनी स्थिति सुधारने का एकमात्र तरीका ईश्वर की आज्ञा मानना और उससे तादात्म्य स्थापित करना था। ईश्वर से तादात्म्य स्थापित करने का सही मार्ग सभी अपवित्र वस्तुओं का परित्याग करना और जीवन की शुद्धता था। इसलिए उन्होंने उन सभी वस्तुओं का परित्याग कर दिया, जिन्हें वे अशुद्ध समझते थे और जादू टोना का भी विरोध किया। उनका विश्वास था कि धर्मेश(ईश्वर) समान रूप से देखता है कि लोग उनकी आज्ञा का पालन कर रहे हैं और वह उन वस्तुओं का भी वह विनाश करता है जो लोगों को हानि पहुंचाती है। ताना भक्तों की अधिकांश आबादी झारखंड के बिशुनपुर घाघरा, गुमला, रायडीह, चैनपुर, पालकोट, सिसई, लापुंग तथा मांडर आदि में स्थित है। इनकी कुल संख्या लगभग 10,000 है जो प्राय: 150 परिवारों में विभाजित है। उस समय जब जतरा भगत ने इस आंदोलन को शुरू किया था तब वह मती (ओझा) का प्रशिक्षण ले रहा था। मान्यता है कि वह एक रात जब प्रशिक्षण लेकर लौट रहा था तब धर्मेश(ईश्वर) ने दर्शन दिया और कहा कि वह मतिभाव सीखना बंद कर दें और भूत प्रेत तथा बलि इत्यादि में विश्वास करना त्याग दें। इसके अतिरिक्त वह मांस मदिरा का भी परित्याग कर दें और खेतों में हल चलाना बंद कर दें क्योंकि इससे गायों - बैलों को केवल तकलीफ होती है और अकाल एवं गरीबी से भी छुटकारा नहीं मिलता है।

4) जतरा की शिक्षाएं-:
जतरा ने लोगों से कहना आरंभ किया कि ईश्वर यह नहीं चाहता कि लोग अब जमींदारों एवं धर्मावलंबियों तथा गैर आदिवासियों की यहां कुलियों एवं मजदूरों का काम करें। उसने यह भी घोषणा की कि ईश्वर ने उसे जनजातियों का नेतृत्व सौंपा है और उसे उन्हें समझाने को कहा है कि वे धर्मेश अर्थात ईश्वर की पूजा करें क्योंकि तभी उनकी इच्छाएं पूर्ण होंगी।
         इस प्रकार ताना भगत ने ना उन विचारों को व्यक्त किया जो आदिवासियों के मानस को काफी समय से उद्वेलित कर रहे थे अन्य शब्दों में उसने एक निश्चित जनजातीय धर्म स्थापित करने में लोगों की सहायता की। वस्तुतः इस प्रक्रिया की शुरुआत बिरसा मुंडा के समय में ही हो गई थी अब केवल जतरा तथा अन्य परवर्ती जनजातियां मसीहा उन्हें उस परिकल्पना को मूर्त रूप प्रदान किया था।

5) आंदोलन का प्रचार-:
!)-हनुमान उरांव द्वारा प्रचार -:भाग दो क्रमशः आगे यहां क्लिक कर पढ़ें----

Friday, 11 December 2020

संथाल जनजाति एक नजर।

 संथाल जनजाति संक्षिप्त परिचय।



झारखंड की संथाल जनजाति मुख्यतः संथाल परगना क्षेत्र ( जामताड़ा,देवघर,पाकुड़, साहेबगंज,गोड्डा और दुमका) में केन्द्रित है। जहां इसकी आबादी लगभग 12 लाख से अधिक है। किन्तु छोटा नागपुर क्षेत्र में भी इसकी आबादी 5 लाख से कम नहीं है। यद्यपि यह लोग संताली भाषा बोलते हैं, जिसका संबंध आस्ट्रो एशियाई भाषा से है तथापि इनकी बोली छोटा नागपुर के दूसरे आदिवासियों से मिलती जुलती है। इनका पहनावा अत्यंत सादा होता है। गरीब संथाल केवल एक टुकड़ा कपड़ा से अपना सिर ढक लेते  है। अमीर घराने के लोग धोती और कुर्ता पहनते हैं। इनकी स्त्रियां साधारणतः मोटे कपड़े की साड़ियां पहनती है। इनका मुख्य वस्त्र पॉची प्रहंद है। प्रहंद से अपना शरीर का निचला भाग ढकती है और प्राची को शरीर के ऊपरी भाग में पहनती है।

संथालो में गांव को आतो कहा जाता है।
गांव के मुखिया को मांझी का जाता है।
गांव का धर्मस्थल जोहार थान कहलाता है।
गृह देवता को ओडाग बोंगा कहा जाता है।
संभालू का मुख्य भोजन दाका उरू अर्थात दाल भात है।
दालों में कुर्थी मुख्य था।
बासक्याक (जलपान), माजवान( दोपहर का भोजन) और कदोक( रात का भोजन) होता था।
संथाल युवतियां तथा महिलाएं साधारणतः कांसा, पीतल, तांबा तथा चांदी के आभूषण पहनती थी। हाथों में सांखा तथा सकोम, बाहों में खागा, गले में हंसूली तथा सकडीं, कानों में पानरा, नाक में मकड़ी, पांवों में बांक-बंकी तथा पांव की अंगुलियों में बटरियां प्रमुख आभूषण थे।
युवक हाथों में टीडोर, बाहों में खागा तथा कानों में कुंडल पहनते थे।
वंशी, ढोल,नगाड़ा तथा केंन्दरा प्रमुख वाद्य यंत्र थे।
पोन  वधू मूल्य था।
पुत्र जन्म के पांचवे दिन तथा कन्या जन्म के तीसरे दिन छठियार मनाया जाता था।
प्रायः पहली संतान का दादा दादी तथा दूसरी का नाना नानी के नाम पर नामांकन किया जाता था।
विवाह से पूर्व चाचो छठियार मनाया जाता था, जिसमें बच्चे को अपनी जाति की प्राप्ति होती थी।
संथाल जनजाति अंतर्विवाही जनजाति थी। सम गोत्र में विवाह निषेध था।
तलाक होने पर वधू मुझे लौटा दिया जाता था।

विवाह के प्रकार---:
सदाई बापला-: इस प्रकार के विवाह प्रायः वर-वधू की पसंद के आधार पर ही सुनिश्चित होते थे।
गोलाइटी बापला-:इस प्रकार के विवाह में जिस परिवार में बेटी ब्याही जाती थी उसी परिवार से पतोह लाई जाती थी। इस प्रकार के विवाह में पोन नहीं लिया जाता था। वधू मूल्य से बचने के लिए दो परिवार के लड़के लड़कियों का बिना पोन दिए विवाह कर दिया जाता था।
टुनकी दिपिल बापला-: इस प्रकार का विवाह प्रायः गरीब परिवारों के बीच संपन्न होता था। कन्या को वर के घर लाकर सिंदूर दान कर विवाह संपन्न हो जाता था।
धरदी जावांय बापला-: इस प्रकार के विवाह में पुत्रहीन व्यक्ति कन्या के गांव जाकर उसे अपने यहां ले आता था। वधू के लिए पोन नहीं देना पड़ता था तथा विवाह के बाद दामाद को ससुराल में ही रहना पड़ता था।
अपगिर बापला-: लड़का लड़की में प्रेम हो जाने पर पंचायत दोनों के अभिभावकों को विवाह संपन्न कराने के लिए कहती थी। यदि वे शादी के लिए तैयार हो जाते थे तो गांव के मांझी एवं पंचायत के सदस्यों के सामने सिंदूर लगाकर शादी संपन्न हो जाती थी। इस अवसर पर लड़के के पिता को गांव वालों को भोज देना पड़ता था।
इतुत बापला -: जब लड़की के माता-पिता उसकी पसंद के लड़के के साथ विवाह की अनुमति नहीं देते थे तो लड़का मेले अथवा किसी अवसर पर लड़की के माथे पर सिंदूर लगा देता था लड़की के माता-पिता इसकी जानकारी मिलने पर लड़के के गांव जाते थे तथा वधू मूल्य मिलने पर विवाह संपन्न हो जाता था।
निर्बलोक बापला-: इस प्रकार के विवाह में लड़की हठकर अपनी पसंद के लड़के के घर रहने लगती थी। लड़का अथवा उसके परिवार के सदस्य बल प्रयोग कर लड़की को घर से निकालने की चेष्टा करते थे। फिर भी यदि लड़की जमी रह जाती थी तो जोगमांझी को सूचित किया जाता था। वह उनका विवाह संपन्न करा देता था।
बहादुर बापला-: इस प्रकार के विवाह में लड़का लड़की जंगल में भाग जाते थे और एक दूसरे को माला पहनाते थे । घर लौट कर अपने को एक कमरे में बंद कर लेते थे। इसके बाद यह माना जाता था कि उनका विवाह संपन्न हो चुका है।
राजा राजी बापला-: इस प्रकार के विवाह में लड़का लड़की गांव के मांझी के पास जाते थे। मांझी उन्हें लड़की के घर ले जाता था तथा गांव के वयोवृद्ध लोगों के समक्ष वह औपचारिक रूप से लड़की की स्वीकृति प्राप्त कर लेता था। लड़का लड़की के माथे पर सिंदूर लगा देता था और इस प्रकार विवाह संपन्न हो जाता था।
सांगा बापला-: इस प्रकार के विवाह में विधवा या तलाकशुदा स्त्री का विवाह विदुर अथवा परित्यक्त व्यक्ति के साथ संपन्न होता था। वर वधु स्वयं ही अपना विवाह तय करते थे कुछ वधू मूल्य भी दिया जाता था। किसी निश्चित तिथि को वधू को वर के घर लाकर शादी करा दी जाती थी।
कीरिंग जावांय बापला-:जब लड़की दूसरे पुरुष से गुप्त रूप से गर्भवती हो जाती थी तो इस लड़की से विवाह के इच्छुक व्यक्ति को कुछ धनराशि देख कर शादी कर दी जाती थी। वधू के माता-पिता द्वारा उसे वैधानिक जीवन प्रारंभ करने के लिए गाय, बैल तथा कुछ द्रव्य भी प्रदान किया जाता था।
                   मृत्यु संस्कार
अंत्येष्टि के अंतर्गत दाह अथवा दफन की दो विधियां थी।
जलाते समय चिता उत्तर दक्षिण दिशा में बनाई जाती थी। मृतक का सिर- दक्षिण की और रखा जाता था। सब को चिता पर रखने के बाद चिता की कोठी पर चूजे की बलि चढ़ाई जाती थी। बाकि हिन्दू रिति अनुसार था।
         गोत्र
संथाल जनजाति बहिर्विवाही गोत्रों में विभक्त थी। गोत्र गोत्रार्द्ध अथवा सिव में बंटे होते थे। संथाल अपने गोत्र तथा सिव में विवाह नहीं करते थे। किंतु माता-पिता के शिव में विवाह हो सकते थे। संताल पिता का गोत्र पाता था माता का नहीं।
        गोत्र चिन्ह के नाम पर गोत्र का नामांतरण होता था।पितृ वंशी गोत्रों की प्रधानता थी गोत्रों में प्रमुख थे हासंदा, मुर्मू, किस्कू, हेम्ब्रम,मरांडी, सोरेन, टुडू,बेसरा, पौडिया, बसके तथा चोड़े इत्यादि।
                     नतेदारी
नातेदारी रक्त तथा विवाह संबंधों पर आधारित थी।
पति के बड़े भाई, बड़ी ननद को देव तुल्य माना जाता था उनकी चारपाई पर बैठने तक की मनाही थी।
पति के बड़े भाई का स्पर्श हो जाने मात्र से आरूप जोगा नामक प्रायश्चित का विधान था।
                 बिटलाहा

संथालों में समगोत्रीय यौन संबंध निषिद्ध था। निषिद्ध यौन संबंध स्थापित होने पर अपराधियों को बीटलाहा अर्थात जाती बहिष्कृत किए जाने की सजा दी जाती थी।विठला की अंतिम स्वीकृति परगनैत द्वारा दी जाती थी। विटलाहा सुनिश्चित किए जाने के बाद गांव का योग मांझी या कोई एक अन्य व्यक्ति साल की टहनी लेकर प्रायः 1 सप्ताह पहले निकटवर्ती जनजाति हाट में जाता था। साल की टहनी में जितनी पत्तियां रहती थी इतने ही दिनों बाद विटलाहा की तिथि मानी जाती थी। गैर संथाल के साथ यौन संबंध करने वाले अभियुक्त को निश्चित ही गांव छोड़ना पड़ता था।
               धर्म
संथाल जनजाति का धार्मिक जीवन अनेक देवी-देवताओं, प्रेत- आत्माओं में विश्वास तथा पर्व त्योहारों से जुड़ा हुआ था।
सनातन संथालो को बोंगा  होड कहा जाता था।
संथालों का सबसे बड़ा देवता सिंगबोंगा (सूर्य) था।
सिंगबोंगा के बाद मरंगबुरू का स्थान था।
अन्य बोंगा हापडामको, गोसाई एरा, मोडेको,  तूईको, जहेर एरा, मांझी हडाम बोंगा, ओडाक बोंगा(गृह देवता) तथा अबगे-बोंगा(परिवार का देवता) थे।
मांझी हडाम बोंगा का निवास स्थान मांझी जान कहलाता था।
प्रतीक संथाल गांव के मध्य में एक चौकोर चबूतरा होता था जिसे मांझी थान कहा जाता था इस जगह गांव के मांझी के भीतर प्रतीक रूप में पत्थर के टुकड़ों के रूप में स्थापित रहते थे। गांव की पंचायत भी प्रायः यहीं बैठा करती थी।
जाहेर थान गांव से थोड़ा हट कर साल अथवा महुआ पेड़ों के बीच अवस्थित होता था, प्रमुख देवी देवता यही निवास करते थे।
ईसाई संथालो को उमेंहाड कहा जाने लगा।
                पर्व एवं त्योहार
गांव का नायके पुजारी सभी लोगों की ओर से व्रत रखता था तथा पूजा-अर्चना करता था।
एरोक पर्व आषाढ़ मास में मनाया जाता था।(यह पर्व बीज के भली-भांति उगने के लिए मनाया जाता था)।
सावन मास में धान की फसल हरि हो जाने पर हरियाड पर मनाया जाता था।
अगहन मास में जापाड पर्व मनाया जाता था। इस पर्व पर जाहेरथान में सूअर की बलि चढ़ाई जाती थी और अन्न की अभिवृद्धि के लिए प्रार्थना की जाती थी।
पौष मास में धान की फसल कट जाने पर सोहराय पर्व आता था। यह संथालों का सबसे पवित्र पर्व था। यह पांच दिवसीय पर्व था जिसमें तरह तरह के विधि विधान थे।
पौष मास के ही अंतिम दिनों में साकरात पर्व मनाया जाता था। यह 2 दिनों का पर्व था। पहला दिन मछलियां केकड़े तथा चूहे पकड़े जाते थे। दूसरे दिन जंगली पशु पक्षियों का शिकार होता था।
बाहा पर्व दूसरे नंबर का महत्वपूर्ण पर्व था जो फाल्गुन मास में साल वृक्षों पर फूल लगते ही मनाया जाता था । यह मुंडाओं तथा उरांवों के सरहुल पर्व की तरह था। वस्तुतः यह संथालों का वसंतोत्सव था। यह 3 दिनों का त्यौहार था।
चैत्र तथा वैशाख मास में बंधना पर्व मनाया जाता था। सभी देवी - देवताओं की पूजा कर बलि चढ़ाई जाती थी। मित्रों, सगे- संबंधियों से मिलना- जुलना तथा पीना, नाचना - गाना सप्ताह भर चलता रहता था।

Thursday, 10 September 2020

चेरो से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य।

 चेरो

----चेराओं का संबंध द्रविड़ जनजाति से है।
---- इनकी अधिकांश आबादी पलामू में केन्द्रित थी।
--- चेराओं के नाक कान छेदने का कार्य मलहोरीन करती थी।
--- कान में दो दिन छेद करवाते थे पर नाक में दाहिने ओर एक छेद करवाना पसंद था। गोदना गोदवातीं थी, जो दस वर्ष तक करवा लिया जाता था।
----मकान के दक्षिण- पश्चिम कोने में चुल्हा होता था।
--- चेरो समाज पितृसत्तात्मक समाज था।
---- विधवा अपने देवर से शादी कर सकती थी।
---- विधवा को भरण-पोषण के लिए पारिवारिक सम्पत्ति का बराबर का हिस्सा दिया जाता था।
--- बड़े चेरो बबुआन कहे जाते थे।
---- चेरो महिला न तो शव यात्रा में शामिल हो सकती थी और न अक्सर तीर्थाटन के लिए निकल सकती थी। गांव के सामूहिक धार्मिक अनुष्ठानों में भी उसकी भागीदारी नहीं के बराबर थी। पंचायत में भी इनका कोई स्थान न था।
---- सउरीघर का सम्बंध प्रसव कक्ष से था।
----- चेराओं में बाल विवाह की प्रथा नहीं थी पर सामान्यतः 12 वर्ष की आयु तक बालक-बालिकाओं का विवाह हो जाता था।
--- लड़कों को 100-1000 रूपये तक तिलक देने की प्रथा थी पर जिन लड़कों को तिलक मिलने की संभावना नहीं रहती थी वे स्वयं कन्या को वधू मूल्य देते थे जिसे दस्तूरी कहते थे।
----- विवाह से पूर्व कन्या अवलोकन की प्रथा चेराओं में नहीं थी।
----- इनमें सगोत्र विवाह वर्जित था।
------ विवाह के तीन तरीके थे। डोला, घरांऊ(कन्या पक्ष के गरीब होने पर) और चढ़ाऊं (कन्या पक्ष के सम्पन्न होने पर)।
----- प्रत्येक गांव में एक बैगा(वंशानुगत) तथा कुछ में डिहवार भी होता था। बैगा देवी देवताओं की तथा डिहवार कुपित आत्माओं को पूजा करते थे।
----- भैयारी पंचायत के पदाधिकारी थे-- महतो या सभापति, छरीदार और पंच।ये पद वंशानुगत थे पर बाद में चुनाव से चयन किए जाने लगे। इनका काम पारंपरिक नियमों के उल्लंघन को रोकना, ठीक समय पर देवी- देवताओं की पूजा कराना।
----- कन्या यदि विवाह के वक्त विदा नहीं होता था तो उसका गवना होता था, बाद में पहली बार ससुराल जाते वक्त दोंगा होने का प्रथा था।
------ परित्यक्ता का पुनर्विवाह सगाई कहा जाता था।
----- चेरो हिन्दू पड़ोसियों की देखा देखी छठ व्रत में सूर्य की पूजा करते थे। रामनवमी भी मनाते थे।
---- बैशाख में सरहूल पूजा होती थी। इस मौके पर गमहेल स्थान में बैगा-खस्सी-मुर्गा तथा तपावन चढ़ाता था। आषाढ़ मास में हरियारी पूजा होती थी। श्रावण में  सावनी पूजा तथा अच्छी वर्षा के लिए दुआर पार की पूजा होती थी। भाद्रपद मास में कर्म पूजा, अनन्त पूजा का प्रचलन था। जन्माष्टमी,जितिया,तीज व्रत,कार्तिक मास में सोहराई पूजा,पौष मास में तिलसंक्रांत पूजा, फाल्गुन में फगुआ आदि उत्सव मनाये जाते थे।

खरवारों से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्य।

 खरवार

---)) खरवार की अधिकतर संख्या पलामू, रांची तथा हजारीबाग में थी।

---)) खरवार परंपरा के अनुसार वे खेरीझार से आते थे , इसलिए खरवार कहलाये।

-)) खरवारों का प्रमुख पेशा कृषि धर्म था।

-))) इनमें बाल विवाह को श्रेष्ठ माना जाता है।वधू मूल्य देने की प्रथा थी।

-)) खरवारों की अपनी पंचायत होती थी।जिसके सदस्य गांव के ही वरिष्ठ पुरुष होते थे।

-)) कई गांव मिलकर चट बनता था जिसका प्रमुख प्रधान कहा जाता था। इसका पद वंशानुगत होता था।

-))) खरवारों में घुमकुरिया जैसी कोई संस्था नहीं थी।

-)) कोई स्त्री निःसंतान थी तो उसकी बहन का विवाह जीजा के साथ हो सकता था। ऐसे विवाह को 'रिजनिया' कहा जाता था।

-))) पलामू तथा रांची में खरवार ग्राम पंचायत का प्रमुख मुखिया कहा जाता था, किंतु शाहाबाद में उसे बैगा ही कहते थे।

-))) बैगा ही प्रत्येक गांव में फसल बोने अथवा काटने का शुभारंभ करता था।

-)) खरवार मुखिया गांवों से हूं राजस्व एकत्रित कर जमींदार को देता था।

--)) खरवार पंचायत एक सर्वमान्य संस्था थी और 1947 ई तक खरवारों के अधिकांश पारस्परिक झगड़े पंचायत स्तर पर ही निपटा लिए जाते थे।

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Tuesday, 8 September 2020

टाना भगत आंदोलन



              टाना भगत आंदोलन(1914)
-) टाना भगत आंदोलन के जनक जतरा भगत का जन्म 1888 ई में गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के अंतर्गत चिंगरी नावाटोली में हुआ था।
-) पिता का नाम कोहरा भगत और माता का नाम लिबरी भगत था। पत्नी बुधनी भगत थी।
-) प्रत्येक वर्ष गांधी जयंती के दिन चिगरी नावाटोला में इनकी जयंती मनाई जाती है।
-) इनको आत्म बोध की प्राप्ति 1914 ई में गुरु ग्राम हेसराग के श्री तुरीया भगत से तंत्र -मंत्र की विद्या सीखने के क्रम में हुआ।
-)टाना भगत आंदोलन की शुरुआत अप्रिल 1914 ई में हुई।
-) टाना शब्द का अर्थ है टानना या खींचना।
-) टाना भगतों की अधिकांश आबादी बिशनपुरा,घाघरा, गुमला,रायडीह, चैनपुर,पालकोट,सिसई, लापुंग,कुडूं तथा मांडर में केन्द्रित है। इनकी कुल संख्या प्रायःदस हजार है जो लगभग 150 परिवारों में विभक्त है।
-) टाना भगत मांस खा सकते थे मांसभक्षी भगत जुलाहा भगत कहे गये ये मांडर क्षेत्र में पाते जाते है। जिन लोगों ने शिबू भगत का अनुखरण नहीं किया वे अरूवा भगत कहलाये क्योंकि वे केवल अरवा चावल ही खाते थे।
-) घाघरा क्षेत्र में बेलगाडा़ निवासी बलराम भगत ने भगत सम्प्रदाय की बागडोर संभाली।
-) बिशनपुर थाना के उरावां ग्राम के भीखू भगत ने बिष्णु भगत सम्प्रदाय को जन्म दिया।
-) 1961 में जतरा भगत को जेल हुई और इस शर्त पर छोड़ा गया कि वह अपने सिद्धांतों का प्रचार नहीं करेगा और शांति बनाते रखेगा।पर जेल में मिली प्रताड़ना की वजह से दो मास के भीतर उसकी मौत हो गई।
-) आंदोलन नहीं रूका और 1916 के अंत तक रांची जिला के दक्षिण पश्चिम भागों से मध्य भाग होते हुए विशेषतः बेड़ी,कुडुं,मांडर, थानों में तथा उत्तर में पलामू जिला तक फैला।

-)भगतों ने राजा के समक्ष चार प्रस्ताव रखा ---


1----उन्हें स्वशासन प्रदान किया जाय।
2------राजा का पद समाप्त किया जाय।
3------समानता स्थापित किया जाय।
4-------भूमि कर समाप्त किया जाय।
-) महात्मा गांधी ने 1921 ई में सविनय अवज्ञा आन्दोलन को प्रारंभ किया तो कुडुं थाना के सिद्धु भगत के नेतृत्व में टाना भगत पहली बार स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गये।
-) टाना भगतों में केवल उरांव ही नहीं है उनमें मुंडा और खड़िया भी शामिल हैं।फिर भी सबसे ज्यादा संख्य में उरांव ही हैं।
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बिरसा आंदोलन

 बिरसा आंदोलन



-)बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 ई को हुआ था।
-) उन दिनों तमाड़ थाना क्षेत्र के उलिहातू में हुआ था।
-) पिता सुगना मुंडा थे और माता कदमी मुंडा थी। इनके बड़े भाई का नाम कोंता मुंडा था।
-) इनका मामा घर अयुबहातू था और नाना जी डिबर मुंडा थे। मौसी जोनी मुंडा अपने साथ ससुराल खटांगा ले गयी।
-) गौडबेडा के आनंद पांडा के सर्म्पक में आया। जहां उस पर बैष्णव धर्म का प्रभाव पड़ा।
-) सबसे पहले बिरसा ईसाई धर्म प्रचारक के सम्पर्क आया।
-) कुंदी बरटोली में बिरसा की भेंट एक जर्मन पादरी से हो गई ,जो उसे बारजो ले गया, जहां पर उसने निम्न प्राथमिक परीक्षा में उत्तीर्ण का प्राप्त की।
-) चालकद बिरसा के अनुयायियों का तीर्थ स्थल है।
-) बिरसा ने चाईबासा से उच्च प्राथमिक स्तर की परीक्षा 1890 ईसवी में पास की।
-) सिंहभूम के संकराग्राम की एक युवती से बिरसा का विवाह हुआ पर बाद में उन्होंने यह विवाह का रिश्ता तोड़ दिया।
-) बिरसा ने लोगों से सिंगबोंगा की उपासना करने का आग्रह किया।
-) बिरसा के वारंट की तामीली का काम पुलिस डिप्टी सुपरिंटेंडेंट जी०आर ०के० मेयर्स को सौंपा गया था।
-) बिरसा आंदोलन का द्वितीय चरण  तब शुरू हुआ जब 1897 ईस्वी के उत्तरार्ध में बिरसा तथा उसके 15 अनुयायियों को हजारीबाग जेल से महारानी विक्टोरिया के शासन के हीरक जयंती के अवसर पर सजा की मियाद पूरी होने के कुछ दिन पहले छोड़ा गया था।
-) 1898-99 ईसवी में संपूर्ण मुंडा प्रदेश में अकाल एवं महामारी का प्रकोप हो गया , जिसका बिरसा ने फायदा उठाते हुए लोगों को सहयोग करते हुए एकजुट किया और अपने विद्रोह की तैयारी करते हुए लोगों को संगठित किया।
-) बिरसा के सेना का मुख्यालय खूंटी में था।
-) 28 जनवरी 1900 को दो मुंडा सरदारों डोंका मुंडा और मांझिया मुंडा ने 32 विद्रोहियों के साथ आत्मसमर्पण कर दिया।
-) बिरसा मुंडा को पकड़ने के लिए ₹500 के इनाम की घोषणा की गई थी।
-) बनगांव के जग मोहन सिंह के आदमियों वीर सिंह महली आदि ने इनाम के लालच में बिरसा को 3 मार्च 1980 को पकड़ा दिया।
-) मुकदमा के दौरान ही जेल में बंद बिरसा का 9 जून 1980 को निधन हो गया।
-) 1902में गुमला तथा 1903 में में खूंटी अनुमंडल खोले गए।
-) बंगाल काश्तकारी कानून की जगह 11 नवंबर 1908 ईस्वी को छोटानागपुर काश्तकारी कानून लागू किया गया।
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संथाल-हुल विद्रोह(1855-56)

संथाल-हुल विद्रोह 1855-56

-/1836 ईसवी तक दामिन ए कोह में संथाल गांवों की संख्या 427 तक हो गई और इन्होंने ने ही 1855 ईसवी की हुल में भाग लिया।
-/1855 ईसवी के आरंभ में 6-7 हजार संथाल विरभूम, बांकुड़ा छोटानागपुर-खास और हजारीबाग से एकत्रित हुए। भगनाडीह के चुन्नू मांझी के चार बेटों सिद्धू, कान्हू, चांद तथा भैरव ने संतालों को नेतृत्व प्रदान किया।
-/1855 ई के एक्ट 37 के अनुसार संथाल परगना जिला की स्थापना हुई।
-/ जुलाई 1855 ई में राजमहल की पहाड़ियों के संतालों का विद्रोह शुरू हुआ। 19 फरवरी 1856 में हजारीबाग के संतालों ने विद्रोह किया।
-/संथाल विद्रोह का वास्तविक विद्रोह अप्रिल 1856 ई में शुरू हुआ।
-/ अर्जून मांझी हजारीबाग के संतालों का महत्वपूर्ण नेता था।
-/ इस विद्रोह का दौर मार्च 1856 के प्रथम सप्ताह में शुरू हुआ जब संतालों ने खडगडीहा परगना के जगन्नाथडीह तथा चक्रडीह पर हमला किया और महाजनों तथा दुकानदारों को लूट लिया।
-/संभालो ने खड़गडीहा परगना में गुआ से 10- 12 किलोमीटर दक्षिण- पश्चिम में अखलापुर बाजार को 20 मार्च 1856 ईसवी में कुलियों, लक्ष्मी ठकुराइन तथा धर्मा के नेतृत्व में लूट लिया।
-/27 अप्रैल 1856 ई को विद्रोहियों के बीच से ही आए हुए 2 संथालो ने खड़गड़ीहा स्थित डिप्टी मजिस्ट्रेट से मुलाकात कर विद्रोहियों के नये नेता सेरजडीह का लुबई मांझी तथा गोवा, दोरूंदा,किस्को और बैरिया के विषय में खुलासा कर दिया। अतः 2 मई 1856 ई को कमिश्नर ने प्रिंसिपल असिस्टेंट के द्वार बंदी बनावा लिया।
-/संथाल विद्रोह और अंग्रेज अधिकारियों का पहला सीधा संघर्ष 29 अप्रैल 1856 ईस्वी को चतरोचट्टी में हुआ।
-/100रूपये के लोभ में जासूस टेक नारायण सिंह से सूचना पाकर 28 मई 1856 को अलेक्जेंडर ने भैरव मांझी को उसके गांव से गिरफ्तार कर लिया।जिसके बाद हजारीबाग में संथाल विद्रोह कमजोर पड़ गया।
-/₹100 के इनाम के लोभ में प्रताप सिंह ने 2 जून 1856 को संभाल नेता बुका मांझी को पकड़वा दिया।

Thursday, 9 April 2020

स्वामी दयानंद और आर्य समाज


इनका बचपन का नाम मूल शंकर था और जन्म 1824 ईसवी मौरवी गुजरात में हुआ था। २१ वर्ष की अवस्था में 1845 ईस्वी में घर से भाग निकले. स्वामी पूर्णानंद न 1848 ईस्वी में दयानंद सरस्वती नाम दिया। 1861 ईस्वी में मथुरा में इनकी भेंट अंधे स्वामी विरजानंद हुई। दयानंद सरस्वती इन के शिष्य बन गए। इन्होंने अपने गुरु से प्रतिज्ञा की कि मैं पूरे भारत में हिंदू धर्म एवं संस्कृति को प्रतिष्ठित करूंगा
1863 ईस्वी में अपने धर्म का प्रचार करने के लिए आगरा में इन्होंने पाखण्ड- खण्डिनी पताका फहराई तथा 1875 ईस्वी में मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की।1877 इस्वी में इन्होंने अपना मुख्यालय लाहौर को बनाया।
आर्य समाज पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ। इन्होंने वेदों की ओर लौटो का नारा दिया। ये कठोर सुधारवादी थे। आर्य समाज ने छुआछूत, जाति व्यवस्था का विरोध किया परंतु वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया। हिंदू धर्म को प्रतिष्ठित करने के लिए स्वामी जी ने 10 सिद्धांतों की स्थापना की।
१)-: वेद मंत्रों के आधार पर हवन किया जाना चाहिए.
२)-: मूर्ति पूजा का विरोध.
३)-: अवतारवाद एवं धार्मिक यात्राओं का विरोध।
४)-: कर्म सिद्धांत और आवागमन सिद्धांत का समर्थन.
५)-: निराकार ईश्वर की एकता में विश्वास.
६)-: स्त्री शिक्षा में विश्वास.
७)-: विशेष परिस्थितियों में विधवा विवाह की स्वीकृति.
८)-: बाल विवाह एवं बहु विवाह का विरोध.
९)-: हिंदी संस्कृति भाषा का प्रचार.
१०)-: सत्य केवल वेदों में निहित है इस कारण वेदो का अध्ययन परम आवश्यक है।
                        अंग्रेजों ने ब्रह्म समाज एवं आर्य समाज को प्रोत्साहन दिया था लेकिन दयानंद की लार्ड नॉर्थब्रुक से भेंट के बाद अंग्रेजों का दृष्टिकोण बदल गया। इसका कारण यह था कि नार्थबुक ने इन्हें अपने बातों के साथ-साथ विक्टोरिया का यशोगान करने के लिए कहा। उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया 1874 इस्वी में दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश प्रकाशित किया।केशव चन्द्र सेन की प्रेरणा से इन्होंने इसी हिंदी भाषा में लिखा।
            भारतीय समाज को धर्म परिवर्तन से बचाने के लिए स्वामी दयानंद ने शुद्धि आंदोलन चलाया। जिसके द्वारा ईसाई बने हिंदुओं को वापस अपनी उनकी संस्कृति में लाया गया इन्होंने वेद भाष्य और वेद भाष्य भूमिका जैसी पुस्तकें भी लिखी। ये पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वराज शब्द का प्रयोग किया। इन्होंने ही पहली बार यह बताया कि विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करना चाहिए और भारत में बनी स्वदेशी वस्तुओं का ही प्रयोग करना चाहिए। यह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार किया। 1882 में इन्होंने एक गौ रक्षा समिति बनाई. अजमेर में 30 अक्टूबर 1883 को इनकी मृत्यु हो गई. शिक्षा के क्षेत्र का योगदान उल्लेखनीय रहा।स्वामी ने भारत के पिछड़ेपन का एक प्रमुख कारण व्यापक अज्ञानता को माना था।
           स्वामी जी की मृत्यु के बाद आर्य समाज में शिक्षा को अंग्रेजी और हिंदी भाषा में अपनाएं जाने के प्रश्न पर मतभेद हो गया लाला हंसराज अंग्रेजी शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने लाहौर में दयानंद एंग्लो वैदिक कॉलेज (डीएवी) की स्थापना की, जबकि स्वामी श्रद्धानंद  या मुंशीराम ने उन्हें हरिद्वार के निकट कांगड़ी में गुरुकुल विश्वविद्यालय की नींव रखी।
1907 ईस्वी में लंदन टाइम्स की ओर से भारत के उत्तर पुथल की जांच करने आए वेलेंटाइन शिरोल ने आर्य समाज को भारतीय अशांति का जन्मदाता कहा।

Sunday, 2 February 2020

मिस्र सभ्यता नील नदी की देन।


मिस्र सभ्यता नील नदी की देन।


मिस्र की सभ्यता में नील नदी का बहुत महत्व है. अगर नील नदी ना होती तो मिस्र में सभ्यता का विकास भी नहीं हो पाता. प्राचीन काल में नील नदी को हापी कहा जाता था यह मध्य अफ्रीका की विक्टोरिया झील के पास से निकलती है और लगभग 700 मील का रास्ता तय करके तथा प्रति वर्ष बाढ़ का पानी और नई मिट्टी लाती हुई भूमध्य सागर में जा मिलती है। यह नदी बंजर चट्टानों में से सकरी उपजाऊ घाटी बनाती है, अपने साथ उर्वरा मिट्टी लाती है, जो इसके किनारों को उपजाऊ बना देती है और अंत में अपनी प्रति वर्ष बाढ़ से सिंचाई में निपुण साधन जुटाकर लोगों का जीवन सफल और सुखी बना देती है। मिस्र की प्राचीन सभ्यता इसी नील नदी की घाटी में पनपी थी। प्राचीन काल में नील नदी के उद्भव के बारे में किसी को भी जानकारी नहीं थी। कुछ अनुमानों के आधार पर कहा जाता है कि नील नदी उस पर्वत से निकलती है जो बादलों और घने कोहरे से ढका रहता है। अॉलमी ने पर्वत को चांद का पर्वत कहां है। स्टेनले ने इस पर्वत को रूबेनजोरी कहा है। जिसका अर्थ है "वर्षा करने वाला इंद्र पर्वत". इस क्षेत्र को आजकल इथियोपिया कहा जाता है। द्विती विश्वयुद्ध तक इसे अबीसीनया और प्राचीन काल में नूबिया‌ कहा जाता था। मिस्र की भूमि अधिक उपजाऊ है इसलिए प्राचीन काल से ही एक कृषि प्रधान देश रहा है।


           पिरामिड काल में यहां गेहूं,चावल, रुई,गन्ना पेपीरस विभिन्न प्रकार के फल और सब्जियां उगाई जाती थी। डेविस ने लिखा है नील नदी समस्त युगों में मिस्र वासियों के जीवन तथा उसकी संपन्नता का साधन रही है । यही कारण है कि मिस्र जैसा रेगिस्तान प्रदेश इस नदी के कारण हमेशा हरा-भरा नजर आता है। प्राचीन मिस्र के लोग अपने देश को काला देश कहा करते थे, क्योंकि नील नदी की उपजाऊ मिट्टी काली होती थी। नील नदी की दो सहायक नदियां श्वेत तथा नीली भी बहती थी। यह नदियां मिश्र की भूमि को संपूर्ण वर्ष जल प्रदान करती थी। नील ने ही मिश्र को आर्थिक विकास, समृद्धि तथा विश्व में गौरवपूर्ण स्थान प्रदान किया। इसलिए इतिहास के जन्मदाता यूनानी इतिहासकार हेरोडोटस ने मिस्र को नील नदी की देन कहा है ।मिस्र की भूमि हमेशा हरी भरी रहती थी। यहां के पशुओं को प्रचुर मात्रा में चारा उपलब्ध हो जाता था। नील नदी के मार्ग से मिस्र के लोग विदेशी व्यापार भी करते थे। नील नदी की घाटी से विभिन्न प्रकार की धातु और बहुमूल्य पत्थर सरलता से उपलब्ध हो जाते थे जिसके फलस्वरूप मिश्र का आर्थिक विकास अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। क्योंकि मिश्र नदी में बहुत बाढ़ आती थी, इसलिए नील वासियों ने बाढ़ को रोकने के लिए और अपने भूमि को पूरे वर्ष जल प्रदान करने के लिए जल का संग्रहण करना आरंभ कर दिया। इसके लिए उन्होंने बांधों और नहरों का निर्माण कराया उन्होंने नील नदी के तट पर कई नगरों की स्थापना भी की। विदेशों के साथ व्यापारिक संबंध हो जाने के कारण यहां गणित, विज्ञान, ज्योतिष तथा कला का बहुत विकास हुआ।  एक विद्वान का विचार है कि यदि मिस्र में नील नदी नहीं होती तो वहां के लोगों का जीवन दूभर हो जाता क्योंकि गर्मियों के मौसम में यहां इतना तापमान बढ़ जाता है कि नदी, नाले, तालाब इत्यादि भी सूख जाते हैं। जल के अभाव में पेड़ पौधे तो क्या मनुष्य व जानवर भी सूखने लगते हैं। तपती गर्मी के समय नील नदी की धारा भी सूख कर पतली हो जाती है तथा खेत खलिहान भी सूख जाते हैं जब तक की गहरी खुदाई की सहायता से पानी ऊपर ना लाया जाए। कृषि करना असंभव होता है। परंतु अगस्त से अक्टूबर तक यहां खूब वर्षा होती है। नदी, नाले और तालाब पानी में लबालब डूब जाते हैं, जिससे दोबारा मनुष्यों में हर्षोल्लास लौट आता है और पशु तथा पेड़ पौधों में जान आ जाती है।

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